लाखों मजदूरों के दर्द को आज देर से समझा सरकारों ने..

‘मनोज शर्मा’

बिलासपुर. दुनिया जहान की तमाम सरकारों ने लॉकडाउन से यह तो सिद्ध कर दिया कि जान है तो जहान है। किसी सरकार ने उन श्रमवीरों का नहीं सोचा कि इस कोरोना के दौर में उनकी जान और जहान का क्या होगा। भारत जैसे देश में 25 मार्च को लॉकडाउन करते वक्त तो इनके बारे में सोचा जाना था। रात 8 बजे घोषणा करके, रात 12 बजे से ट्रेन, बस, हवाई सेवा बंद कर दिए जाने से मजदूर अपने बाल-बच्चों के साथ जहां थे, वहीं ठहर गए। चार घंटे में कैसे और आखिर कहां तक जा पाते। जनता कर्फ्यू लगाते वक्त 22 मार्च को ही बता दिया जाता कि तीन दिन बाद ट्रेन व बसें बंद होने वाली हैं, तो मजदूर भी अपने ठिकाने पर पहुंच जाते। अब याद आई भी तो आखिरी दौर में 1 मई मजदूर दिवस को दिखाने के लिए ट्रेनें दौड़ाई जाने लगी है थोड़ा पहले सोच लेते तो क्या जाता।


इन लाखों अभागों को तो यह भी नहीं पता होता कि कल काम मिलेगा या नहीं। काम मिल भी गया तो रोजी मिलेगी या नहीं। धन्य है सरकार, आपने तो उन अभागों को सवा माह तक घर में रहने का हुक्म दे डाला। यह भी नहीं सोचा कि बिना रोजी-रोजगार के कैसे वो अपनी खोली में जी पाएगा। कहां से किराया, बिजली, पानी, बच्चों का दूध लाएगा। दो-चार दिन समाज सेवा का शौक रखने वाले उसका पेट भर भी देंगे, फिर उसके बाद क्या ?

सरकार में बैठे हे नीति नियंताओ, पांच किलो चावल, एक किलो चने से महीने भर का चूल्हा जल सकता है क्या? नहीं ना, तो फिर मई दिवस पर इतना ही बता दो कि श्रमिकों के हितों पर क्यों नहीं सोचा गया? वो भी सौ दो सौ नहीं, बल्कि लाखों श्रमिकों की आबादी का हित बिसार दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने भी श्रमवीरों का दर्द नहीं समझा। केन्द्र सरकार को कह दिया कि पलायन करने वालों को रोकें। कैसे रुकते साहब घर में। परदेश में पेट की आग और महामारी जैसे संकट में अपने गांव-घर की याद किसे नहीं आएगी। ऐसे में अगर पैदल अपनी जान की बाजी लगाकर यदि अपना जहान बचाने चल पड़ा, तो इसमें गलत क्या है। कोई बारह सौ, तो कोई चौदह सौ किलो मीटर अपने छोटे-छोटे बाल बच्चों के साथ कैसे चला होगा। बीच-बीच में अनजान राज्यों, जिलों की पुलिस का इन श्रमवीरों ने कैसे सामना किया होगा। कहीं डंडे खाए, तो कहीं गालियां सुनीं। कई रास्ते में दम तोड़ गए। माल ढोने वालों में किसी तरह बैठ गए, तो उसमे भी हमारी हुकूमतों को परेशानी हो गई। बड़े बे आबरू करके इनको उतारा गया। रेल की पांतों पर चलते श्रमिकों और उनके बच्चों के पैरों में गिट्टियों से छाले भी पड़े होंगे। हम अपने आप को सभ्य समाज कहते हैं, देश को विश्वगुरू बनाने का संकल्प ले रखा हैं तो किसने इन छालों का दर्द महसूस किया? शायद किसी ने नहीं। वरना, रईस घर के बच्चों को राजस्थान के कोटा से लाने जैसी रणनीति बन गई होती। आप ही सोचें इन श्रमवीरों को अमीर बच्चों की तरह व्हीआईपी सत्कार था या नहीं।

‘आम आदमी’ और ‘खास आदमी’ का यह फर्क सांविधानिक मर्यादाओं के मुंह पर तमाचा नहीं माना जाना चाहिए। शायद इसीलिए कहते हैं कि गरीबी आज के दौर में सबसे बड़ा श्राप है। इन प्रताड़ित गरीबों में ऐसे किसान भी शामिल हैं जो फसल काटने के बाद और अगली फसल के लिए बोआई करने के बीच के समय में मजदूरी करने के लिए दूसरे राज्यों में पलायन पर जाते हैं। किसानों के हितों का दम भरने वाली सियासत भी इस मसले पर पूरे अड़तीस दिन एक तरह से अंधी ही रही।

भारत जैसे विशाल और बहुलता मूलक देश में निष्कर्ष आसानी से नहीं गढ़े जा सकते। देखना कल मई माह के पहले दिन ये यानी 1 मई मजदूर दिवस पर कैसे इन्हीं सरकारों के नुमाइंदे एक से बढ़कर एक भाषण देंगे। मजदूर हितों को लेकर गाल बजाएंगे। इस दिन वेतन के साथ अवकाश भी सरकारें देंगी। देश में या किसी राज्य में कोई छोटी-मोटी घोषणा भी हो जाए तो हैरत नहीं होना चाहिए। यह पूछा भी नहीं जाएगा कि पिछले साल भले के लिए जो योजना बनी थी, उससे कुछ भला हुआ भी या नहीं। यह दिवस तो हर साल की तरह आकर चला जाएगा, लेकिन मुंबई हो या सूरत लाखों मजदूर महामारी के दौर में इस दिवस पर भी भूखा ही सोएगा। इसलिए भी मई दिवस मनाने में कोई सार्थकता नजर नहीं आती। हर साल दिवस मनते गए और श्रमिकों का हाल बद् से बद्तर होता गया। इस पर भी उसकी व्यथा सुनने वाला देश में कोई नहीं हैं। मजदूर यूनियन भी ज्यादा कुछ करने की स्थिति में रही नहीं। अब तो जार्ज फर्नांडिज जैसे नेता भी कहां पैदा होते हैं। श्रम विभाग का मालिकों से सांठगांठ और योजनाओं का लाभ न मिलना भी जटिल मुद्दे हैं। सब मिलाकर शोषण के दौर में मजदूर दिवस को लेकर श्रमिक तबके में अब कोई खास उत्साह नहीं रह गया है। बढ़ती महंगाई और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने भी मजदूरों के उत्साह का कम कर दिया है।

You May Also Like

error: Content is protected !!