अब शहर का क्या: बीडीए बनाने भाजपा की तरह कांग्रेस को भी परहेज क्यों..

‘मनोज शर्मा’..

पांच साल की कांग्रेस की सरकार ने देर से ही सही, अंतत: डेढ़ साल बाद निगम-मंडलों की मलाई बांट ही दी। बिलासपुर शहर के बेचारे नेता इतना तो पूछ ही सकते हैं कि छत्तीसगढ़ के दूसरे सबसे बड़े शहर यानी न्यायधानी के हिस्से में क्या आया? दो दशक तक केसरिया लहराने वाले इस शहर ने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत दिलाई। बदले में ईनाम तो मिला नहीं, उल्टे सजा क्यों दी जा रही है, यह सवाल भी लोग पूछने लगे हैं।

कभी-कभी तो शहरवासियों को ऐसा लगता है कि सरकार भले कांग्रेस की है, पर शहर में भाजपा की नीत-रीत को ही कोई परदे के पीछे से लागू करा रहा है। क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो बिलासपुर विकास प्राधिकरण का गठन करके एक राज्य मंत्री शहर में लाल बत्ती लिए घूम रहा होता। सबको पता है कि भाजपा की सरकार ने पूरे पंद्रह साल की सत्ता में बिलासपुर विकास प्राधिकरण नहीं बनने दिया, जबकि रायपुर विकास प्राधिकरण इस दौरान पूरे समय तक काम करता रहा।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद कांग्रेस की पहली जोगी सरकार ने बिलासपुर विकास प्राधिकरण (बीडीए) को भंग करके नगर निगम में मिला दिया था। तब इस जिले से मुख्यमंत्री अजित जोगी थे । इसलिए बीडीए की कमी किसी को नहीं खली। इसके बाद चुनावों में भाजपा की सरकारें बनती रहीं और बिलासपुर शहर में केसरिया लहराता रहा। शुरू में शहर से विधायक अमर अग्रवाल भाजपा सरकार में वित्तमंत्री बने, तब भी बीडीए की उतनी याद नहीं आई। इसके बाद भाजपा की शहर में ताकतवर सत्ता के साए में दबी जुबान से लोग बीडीए को याद करने लगे थे। कारण यह भी था कि शहर, तेजी से गांवों में पसर रहा था और बिल्डर यहां गांवों की जमीनों पर ताबड़तोड़ तरीके से कॉलोनियां बनाकर बेच रहे थे ।

असल में बीडीए एक ऐसी संस्था थी, जो मध्यमवर्गीय लोगों को सस्ते में मकान-प्लाट उपलब्ध कराती थी। गरीबों को तो अटल आवास मिल जाता है और अमीर लोग बिल्डरों को मुंहमांगी रकम देकर मकान खरीद लेते हैं, लेकिन मध्यम वर्गीय लोगों के लिए बीडीए एक उम्मीद थी। यह उम्मीद बीते दो दशक यानी भाजपाई कार्यकाल में शायद इसलिए पूरी नहीं की जा सकी, क्योंकि बीडीए अध्यक्ष के रूप में एक और शहर का क्षत्रप पैदा हो जाता। राज्यमंत्री का दर्जा प्रा’ यह पद धारण करने वाला नेता, भाजपा की टिकट का दावेदार भी हो सकता था।
चलो जो हुआ सो हुआ, लेकिन अब तो कांग्रेस की सरकार है। फिर क्यों भाजपा की नीति ही बीडीए के मामले में लागू हो रही है। ठीक है कि धोखे से जीत गए शहर के कांग्रेस विधायक को और कमजोर करना अभी बाकी है, लेकिन किसी और को तो यह पद नवाजा जा सकता था। आगे भी तो कांग्रेस को सरकार बनाना है कि नहीं। तब विधानसभा चुनाव लड़ने वाले कांग्रेस के उम्मीदवार की कद काठी भी तो शहर में देखी जाएगी। जरूरी थोड़े है कि अगली बार फिर थोक में इतने ही विधायक जीत जाएं। तब तो मध्यप्रदेश, राजस्थान की तरह एक-एक विधायक की कद्र करनी पड़ेगी न। पता नहीं क्यों कांग्रेस, सांप निकलने के बाद लकीर पीटती रहती है या फिर ऐसा तो नहीं कि शहर की विधानसभा सीट समझौते के तहत छोड़ी जाने वाली हो। इतना तो तय है कि निगम-मंडलों के बंटवारे में जिस तरह से कभी सियासी दमखम रखने वाले शहर की उपेक्षा की गई है, उस पर सवाल उठने लगे हैं।

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