कुरूतियों के खिलाफ आवाज उठाने वाली सावित्री बाई फुले की आत्मकथा डीआईजी की कलम से..

‘रतन लाल डांगी’

भारत मे जहाँ 19 वीं शताब्दी तक महिलाओं को शिक्षित करने के बारे मे सोचना ही पाप समझा जाता था। उस दौर में महिलाओं की शिक्षा के लिए संघर्ष करना और उसे मूर्त रूप देने वाली महान नारी सावित्री बाई फुले को जन्म दिवस पर कोटि कोटि प्रणाम उनकी दूर दृष्टि और सोच का ही प्रति फल है कि देश मे ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां महिला शक्ति ने अपना परचम ना फहराया हो ,चाहे राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, वैज्ञानिक, डाक्टर ही क्यों ना हो।

सावित्री बाई फुले इस देश की पहली महिला शिक्षिका होने के साथ साथ अपना पूरा जीवन समाज के वंचित तबके खासकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में देने के लिए हमेशा याद की जाएंगी.
19वीं सदी में स्त्रियों के अधिकारों, अशिक्षा, छुआछूत, सतीप्रथा, बाल या विधवा-विवाह जैसी कुरीतियों पर आवाज उठाने वाली देश की पहली महिला शिक्षिका थीं महाराष्ट्र में जन्मीं सावित्री बाई फुले जिन्होंने अपने पति समाज सुधारक ज्योति राव फुले से पढ़कर सामाजिक चेतना फैलाई. उन्होंने अंधविश्वास और रूढ़ियों की बेड़ियां तोड़ने के लिए लंबा संघर्ष किया.

सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थ‍ित नायगांव नामक छोटे से गांव में हुआ था। महज 9 साल की छोटी उम्र में पूना के रहने वाले ज्योतिबा फुले के साथ उनकी शादी हो गई. विवाह के समय सावित्री बाई फुले पूरी तरह अनपढ़ थीं, एक घटना के अनुसार एक दिन सावित्री अंग्रेजी की किसी किताब के पन्ने पलट रही थीं, तभी उनके पिताजी ने देख लिया. वो दौड़कर आए और किताब हाथ से छीनकर घर से बाहर फेंक दी. इसके पीछे ये वजह बताई कि शिक्षा का हक़ केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही है, दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करना पाप था. बस उसी दिन वो किताब वापस लाकर प्रण कर बैठीं कि कुछ भी हो जाए वो एक न एक दिन पढ़ना जरूर सीखेंगी.

वही लगन थी कि एक दिन उन्होंने खुद पढ़कर अपने पति ज्योतिबा राव फुले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले। बता दे साल 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में देश का सबसे पहले बालिका स्कूल की स्थापना की थी. वहीं अठारहवां स्कूल भी पुणे में ही खोला गया था.

स्कूल के लिए निकलीं तो खाए पत्थर और
सामाजिक मुश्किलें..

सावित्री बाई स्कूल जाती थीं तो विरोधी लोग पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंक देते थे। आज से 160 साल पहले बालिकाओं के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम माना जाता था कितनी सामाजिक मुश्किलों से खोला गया होगा
सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फेका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं और अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती थी।
1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने एक विद्यालय की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पाँच नये विद्यालय खोलने में सफल हुई तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया वह भी पुणे जैसे शहर में।

प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीज़ों की सेवा करती थीं। एक प्लेग के छूत से प्रभावित बच्चे की सेवा करने के कारण इनको भी छूत लग गया।10 मार्च 1897 को प्लेग के कारण सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया ।
सावित्रीबाई फुले एक कवियत्री भी थीं. उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था.

कुरीतियों के खिलाफ उठाई आवाज..

सावित्रीबाई ने 19वीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियों के विरुद्ध अपने पति के साथ मिलकर काम किया. सावित्रीबाई ने तथाकथित उच्च वर्ग की विधवा गर्भवती महिला जिसको परिवार जनों ने जलील करके घर से बाहर निकाल दिया था, तब वो महिला आत्महत्या करने जा रही थी तो सावित्री बाई ने उस विधवा महिला काशीबाई को अपने घर मे शरण देकर अपने घर में डिलीवरी करवा उसके बच्चे यशंवत को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया. दत्तक पुत्र यशवंत राव को पाल-पोसकर इन्होंने डॉक्टर बनाया.

विषमतादी ग्रंथों को घर से बाहर फेंकने की बात करती थीं..

सावित्रीबाई फुले ने पति के अधूरे कामों को पूरा करने के लिए संकल्प लिया था.पूरा जीवन समाज के वंचित तबके खासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता. उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जिसमें वह सबको पढ़ने- लिखने की प्रेरणा देकर जाति तोड़ने और विषमतावादी ग्रंथों को फेंकने की बात करती थीं.

उनकी शिक्षा पर लिखी मराठी कविता का हिंदी अनुवाद..

जाओ जाकर पढ़ो-लिखो, बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती
काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो ज्ञान के बिना सब खो जाता है, ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं..
इसलिए, खाली ना बैठो,जाओ, जाकर शिक्षा लो
दमितों और त्याग दिए गयों के दुखों का अंत करो, तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है
इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो,भेदभाव फैलाने वाले ग्रंथ जल्दी से जल्दी फेंक दो।

सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा ने 24 सितंबर,1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की. उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा भी शुरू की और इस संस्था के द्वारा पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसम्बर 1873 को कराया गया. 28 नवंबर 1890 को बीमारी के चलते ज्योतिबा की मृत्यु हो गई थी. ज्योतिबा के निधन के बाद सत्यशोधक समाज की जिम्मेदारी सावित्रीबाई फुले पर आ गई. उन्होंने जिम्मेदारी से इसका संचालन किया. सावित्रीबाई एक निपुण कवियित्री भी थीं. उन्हें आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत भी माना जाता है. वे अपनी कविताओं और लेखों में हमेशा सामाजिक चेतना की बात करती थीं.

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