‘राजकुमार सोनी’
रायपुर.छत्तीसगढ़ी फिल्म के निर्माता- निर्देशक इसी महीने पांच जून को एक बड़ा आंदोलन करने जा रहे हैं. फिल्मकारों की मांग है कि जैसे महाराष्ट्र के मल्टीफ्लैक्स में मराठी सिनेमा का प्रदर्शन अनिवार्य है ठीक वैसे ही छत्तीसगढ़ के मल्टीफ्लैक्स में भी छत्तीसगढ़ी फिल्म प्रदर्शित होनी चाहिए. इसके साथ फिल्मकारों का यह भी कहना है कि छत्तीसगढ़ की बोली-बानी को मानने और जानने वाले दर्शक अपने साथ खुरमी-ठेठरी और चीला साथ ला सकते हैं और जितना चाहे उतना खा सकते हैं. छत्तीसगढ़ के निर्माता-निर्देशक और कलाकारों की यह मांग जायज है और इसका हर स्तर पर स्वागत होना चाहिए, लेकिन इस मांग के साथ फिल्मकारों से यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि भाइयों… आखिरकार कब तक छत्तीसगढ़ का दर्शक आप लोगों की ओर से की जा रही ठगी का शिकार होता रहेगा. कब तक यहां के दर्शक को साजन चले ससुराल, हीरो नंबर वन, स्वर्ग से सुंदर, निरहुवा रिक्शावाला, स्वर्ग, गोलमाल, चोर-सिपाही,पेइंग गेस्ट, मुझसे शादी करोगी, मेरी बीवी की शादी और गोविंदा की सड़क छाप फिल्मों की नकल देखने के लिए मजबूर रहना होगा. आप लोग कब पांथेर पंचाली से भी आगे की फिल्म बनाने के बारे में सोचेंगे. कब महाराष्ट्र की कोर्ट और सैराट से भी बेहतर कोई फिल्म हमें देखने को मिलेगी.
यह बेहद खुशी की बात है कि पंडवानी की महान गायिका तीजन बाई पर फिल्म अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्धकी की पत्नी आलिया सिद्धकी फिल्म बना रही है, लेकिन क्या यह शर्म का विषय नहीं है कि छत्तीसगढ़ के किसी भी निर्माता और निर्देशक ने तीजन बाई के जीवन पर फिल्म बनाने के बारे में नहीं सोचा. क्या छत्तीसगढ़ का दर्शक लेंडगा नंबर वन, महूं कुंवारा – तहूं कुंवारी, हंस मत रे पगली फंस जाबे जैसी फिल्में देखने के लिए ही अभिशप्त रहेगा. क्या कोई कभी शंकरगुहा नियोगी को याद करेगा. क्या कभी बस्तर के अमर प्रेमी जोड़े झिटकू-मिटकी पर कोई उम्दा फिल्म बनेगी. क्या कोई बस्तर के माओवाद पर ( एक पक्षीय नहीं ) फिल्म बनाने की हिम्मत और ताकत जुटाएगा. भिलाई के एक फिल्मकार ने माओवाद के खात्मे को लेकर एक बचकाना फिल्म बनाई थी. इस फिल्म के सारे कलाकार गिटार बजा-बजाकर माओवाद का खात्मा करना चाहते थे. कुछ लड़के ड्रम और गिटार लेकर बस्तर के जंगल पहुंच जाते हैं और फिर अरजीत सिंग स्टाइल में गाना गाकर माओवादियों को प्रेरित करते हैं कि भाइयों समाज की मुख्यधारा से जुड़ जाओ. इस फिल्म को देखने के बाद लगा था कि एक न एक दिन कोई न कोई फिल्मकार माओवादियों के सिर पर नवरतन तेल चुपड़ने पहुंच जाएगा और एक ही झटके में माओवाद का खात्मा हो जाएगा. पिछले दिनों पहले एक फिल्म संगी रे… आई थीं जो जस का तस मराठी फिल्म सैराट की कापी थीं. निर्माता और निर्देशक ने एक भी सीन को बदलने की जहमत नहीं उठाई.
इस बीच यह खबर मिली है कि नाचा के बेजोड़ कलाकार दाऊ मंदराजी पर एक युवक विवेक सार्वा ने फिल्म बनाई है. शायद यह फिल्म 28 जून को रीलिज होगी. फिल्म अच्छी है या खराब इसका पता तो फिल्म को देखकर ही हो पाएगा, लेकिन हमारी अपनी माटी को गौरान्वित करने वाले मंदराजी के जीवन पर फिल्म बनाने वाले विवेक को इस साहस के लिए बधाई दी जा सकती है. सवाल यह है कि विवेक जैसा साहस किसी और निर्माता और निर्देशक ने अब तक क्यों नहीं जुटाया. यदि कभी छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्री के लोगों से इन सारी बातों को लेकर चर्चा करो तो वे अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए कुछ इस तरह का तर्क देते हैं- 1- छत्तीसगढ़ी फिल्में विकास की प्रक्रिया में हैं. एकायक कुछ नहीं होगा. भले ही राज्य को बने 18 साल हो गए हैं. राज्य जवान हो गया है… फिर भी हम सीख रहे हैं. 2- क्या करें… फिल्म का अमुक सीन इसलिए अच्छा नहीं बन पाया क्योंकि हिरोइन बीकॉम फाइनल ईयर में है उसे पेपर देने जाना था. 3- हीरों का बाप मर गया तो शूटिंग रुक गई थी. 4- तेज बरसात की वजह से लाइट कम हो गई. 5- और भी कई उदाहरण है जिनका उल्लेख करना ठीक नहीं है. अरे भाइयों आपकी निजी परेशानियों से दर्शक को क्या मतलब. दर्शक को इस बात से मतलब नहीं है कि आपकी फिल्म पांच लाख में बनी है या साठ लाख में. दर्शक आपकी फिल्म के लिए पैसे खर्च करता है और आपसे सिर्फ एक उम्दा फिल्म की अपेक्षा करता है. श्रीमान जी… छत्तीसगढ़ का दर्शक इतना भी गदहा नहीं है कि वह इधर-उधर की चोरी और आपके ट्रीटमेंट का लंबे समय तक सम्मान करता रहेगा.
छत्तीसगढ़ जब अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था तब से प्रदेश की पहचान धान के कटोरे के तौर पर बनी हुई है. धान का कटोरा बोलते ही अन्न उगाने लाखों किसानों का हंसता-गाता, रोता-मुस्कुराता चेहरा नजर आने लगता है, लेकिन यहां के निर्माताओं ने अन्नदाता की समस्याओं को लेकर कभी कोई फिल्म बनाने के बारे में विचार ही नहीं किया. छत्तीसगढ़ की फिल्मों में किसान तो मौजूद रहता है, लेकिन वह पूरे समय हिंदी फिल्मों के बाप की तरह अपने बेटे के लिए बहू खोजते रहता है. राजश्री प्रोडक्शन की फिल्मों की तरह समधी से लड़ते रहता है. सतीश जैन की फिल्म मोर छइंया-भुइंया में मिट्टी के महत्व और पलायन के मुद्दे को रेखांकित करने की पहल तो की गई, लेकिन मुंबईयां फार्मूलों के आगे पलायन के दर्द को वह उभार नहीं मिल पाया जैसा मिलना चाहिए था. फिल्मकार भूल जाते हैं कि छत्तीसगढ़ में आदिवासी भी है और उनकी अपनी समस्याएं भी है.
छत्तीसगढ़ की फिल्में अब भी अमीर परिवार से तालुकात रखने वाली लड़की, गरीब हीरो, तालाब में गिरने, हीरो के द्वारा बचाने, प्यार के इकरार, फिर दो प्यार करने वालों के बीच छिछोरे किस्म के खलनायक की इंट्री…. बेमतलब की बारिश, लपड़-झपड़ और ढिशुम-ढिशुम के आसपास ही घूम रही है.छत्तीसगढ़ में हर दूसरे पखवाड़े जेमिनी और एवीएम प्रोडक्शन का मसाला दोसा सामने आ जाता है. यहां का निर्माता अब भी गुलशन नंदा के उपन्यास में जिंदा रहने वाले लाचार मां-बाप के आवारा बेटे से रिक्शा ही खींचवा रहा है. अब जमाना बहुत आगे बढ़ गया है. अब जो फिल्म दर्शकों के सपनों में रंग भरने का काम नहीं करती उसका डिब्बा गुल हो जाता है. हिंदी सिनेमा के एक बड़े अभिनेता शाहरूख खान की फिल्में भी महज इसलिए फ्लाप हो रही है क्योंकि वह कुछ-कुछ होता है से आगे ही नहीं बढ़ पा रही है. जबकि इन सालों में बहुत कुछ हो चुका है. इसमें कोई दो मत नहीं कि एक समय छत्तीसगढ़ का सिने दर्शक कोरी भावुकता का शिकार था और वह जय संतोषी मां जैसी फिल्म को भी हिट कर देता था, लेकिन अब उसकी भावुकता में यथार्थ का मिश्रण शामिल है. छत्तीसगढ़ का दर्शक यथार्थ में जीना सीख गया है. छत्तीसगढ़ के निर्माता और निर्देशकों को भी प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई, सुभाष घई और डेविड धवन के खोल से बाहर निकलकर कठोर यथार्थ में जीना आ जाना चाहिए.