राजकुमार सोनी
रायपुर. देश की राजधानी दिल्ली और हैदराबाद में पदस्थ दो अफसरों की दिली ख्वाहिश थीं कि बस्तर के किरन्दुल में आंदोलनरत आदिवासियों पर किसी भी तरह से गोली चालान हो जाए ताकि सरकार की धज्जियां उड़ाई जा सकें, लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की सर्तकता ने ऐसा नहीं होने दिया.
जो लोग बस्तर के आंदोलन से जुड़े रहे हैं वे जानते हैं कि 31 मार्च 1978 में बैलाडीला इलाके में कार्यरत अशोका माइनिंग नाम की एक कंपनी ने ठेका समाप्त होने का बहाना कर लगभग चार हजार मजदूरों को छंटनी का नोटिस थमा दिया था. कंपनी की इस नोटिस के बाद जब मजदूर परिवारों के सामने रोजी-रोटी का संकट गहराया तो उन्होंने आंदोलन प्रारंभ किया. यह आंदोलन कई दिनों तक चला और अततः 5 अप्रैल 1978 को पुलिस प्रशासन ने निहत्थे आदिवासियों पर गोलियां बरसाई. तब इस घटना में एक पुलिस जवान कोमल सिंह सहित कुल 10 मजदूर मारे गए थे. हालांकि मरने वाले मजदूरों की संख्या इससे कहीं ज्यादा थीं.
इधर बस्तर के किरन्दुल में आयरन ओर डिपाजिट क्रमांक 13 के साथ-साथ अपने देवी-देवताओं के पहाड़ को बचाने के लिए जब आदिवासी लामबंद हुए तब दिल्ली में जा बसे एक अफसर और हैदराबाद में तैनात एक दूसरे अफसर ने आंदोलन को छिन्न-भिन्न करने की योजना पर मंथन किया था. अफसरों की दिली ख्वाहिश थी कि ऐन-केन-प्रकारेण आंदोलन टूट जाए, लेकिन यह संभव नहीं हो पाया. सूत्र बताते हैं कि इस आंदोलन को कमजोर करने के लिए कुछ ऐसे तत्वों को भी सक्रिय किया गया था जो बिचौलिए की भूमिका अदा कर रहे थे. आंदोलन के दौरान दंतेवाड़ा में तैनात एक पुलिस अफसर को यह कहते हुए भी सुना गया किआंदोलन के पीछे नक्सलियों का दिमाग काम कर रहा है. वे बार-बार यही बात कह रहे थे कि आंदोलन से कैसे निपटा जाता है उन्हें मालूम है… आंदोलनकारियों से अच्छी तरह से निपटना आता है आदि-आदि. यहां यह बताना लाजिमी है कि बस्तर का माड़िया आदिवासी अन्य आदिवासियों से थोड़ा आक्रामक होता है. आंदोलन में शरीक ज्यादातर आदिवासी माड़िया ही थे, लेकिन पुलिस प्रशासन उस आक्रामकता को ध्यान में रखने के बजाय अपनी आक्रामकता को जाहिर करने में लगा हुआ था. जब इस बात की भनक पुलिस महानिदेशक डीएम अवस्थी को लगी तो उन्होंने पूरे मामले में बेहद संतुलन के साथ सावधानी बरतने का निर्देश दिया और साफ-साफ कहा कि कुछ भी अप्रिय घटित नहीं होना चाहिए. दंतेवाड़ा के कलक्टर टोपेश्वर वर्मा भी पूरे समय हालात पर नजर रखे हुए थे. सिचुवेश्चन को संभालने में कांग्रेस के वरिष्ठ अरविंद नेताम, दीपक बैच, मोहन मरकाम और रेखचंद जैन सहित कुछ अन्य लोग भी सक्रिय थे, लेकिन कतिपय तत्व यह भी चाहते थे कि इलाके में हिंसा से अप्रिय स्थिति पैदा हो जाय.
रमन सरकार ने बेचा पहाड़..
बस्तर के दंतेवाड़ा जिले के बैलाडीला में जिस डिपाजिट क्रमांक 13 को लेकर आदिवासी आंदोलन करने को मजबूर हुए वहां बेशकीमती आयरन ओर के साथ-साथ नंदराज ( देव ) और पित्तोड़रानी ( देवी ) का स्थान भी है. इस पहाड़ को उद्योगपति गौतम अडानी को सौंपने का फैसला डाक्टर रमन सिंह की सरकार के समय ही कर लिया गया था. छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला कहते हैं- पहाड़ को सौंपने के लिए आसपास के 85 गांवों में से किसी भी एक गांव ने अपनी सहमति प्रदान नहीं की थीं बल्कि विरोध में सात प्रस्ताव दिए थे, लेकिन रमन सिंह की सरकार ने फर्जी ढंग से यह दर्शा दिया कि सभी गांवों ने सहमति दे दी है. शुक्ला कहते हैं- बघेल की सरकार ने पहले भी आदिवासियों की जमीन लौटाकर अपनी संवेदनशीलता का परिचय दिया है सो उनसे अपेक्षा है कि वे पहाड़ को बचाने के लिए अनुबंध को निरस्त करने की दिशा में लगातार सक्रिय रहेंगे. शुक्ला का कहना है कि अगर कोई गलत जानकारी के आधार पर पर्यावरण व अन्य स्वीकृतियां हासिल कर लेता है तो राज्य सरकार को अनुबंध निरस्त करने के लिए कार्रवाई करने का पूरा अधिकार है. सरकार को इस बात की भी जांच करनी चाहिए कि डिपाजिट 13 के लिए ग्राम सभाओं में फर्जी ढंग से प्रस्ताव बनाने के खेल में कौन-कौन लोग शामिल थे.
वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम कहते हैं- वर्ष 1960 के आसपास जब बैलाडीला की खदानों को खोदने का काम प्रारंभ किया गया तब बाहर से आए हुए लोगों ने आदिवासी संस्कृति और सभ्यता को छिन्न-भिन्न करने का काम किया था. इसी वर्ष यह बात भी सामने आई थी कि बाहरी लोग आदिवासी बालाओं को अपनी हवस का शिकार बना रहे हैं और वे उनकी संतानों को पालने के लिए मजबूर हैं. नेताम कहते हैं- सभ्यता और संस्कृति को विनाश करने की यह प्रवृति अब आदिवासियों के देवी-देवताओं के साथ-साथ उनके विश्वास को नष्ट करने तक आ पहुंची है. नेताम ने बताया कि उन्होंने मुख्यमंत्री को सारी बातों और चिंताओं से अवगत कराया है. उनकी चिंता में यह बात भी शामिल है कि हालात से निपटने में अक्षम फायरिंग जैसी सिचुश्वेशन पैदा करने वाले अफसरों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए.