रायपुर.बहुत से मित्रों और शुभचिंतकों ने कहा है कि छत्तीसगढ़ की बदली हुई राजनीतिक फिजा को लेकर मैं कुछ लिखूं. राजस्थान पत्रिका नाम के जिस संस्थान में काम करता था उस संस्थान ने ठीक चुनाव के पहले मुझे कोयम्बत्तूर भेजा था और ठीक दो महीने बाद सेवा से बर्खास्त कर दिया है. वजह क्या है…यह जानने के लिए श्रम विभाग में अर्जी लगाई है. यह भी सोचता हूं कि अगर वहां रहता तो क्या लिखने का कोई बेहतर अवसर मिल पाता. बहरहाल इस सारी राम कहानी से इत्तर एक हकीकत यहां बया कर रहा हूं.
मतगणना से ठीक एक रोज पहले भाजपा के एक प्रवक्ता टीवी में चीख रहे थे- छत्तीसगढ़ में बारिश इसलिए हुई है क्योंकि बारिश से कीचड़ होता है और सबको पता है कि कमल कीचड़ में ही खिलता है. टीवी का एंकर कोई नौजवान था. उसने कहा- जब कीचड़ ही करना था तो फिर सड़कें क्यों बनाई. प्रवक्ता ने जवाब दिया- भाजपा की सरकार ऐसी सरकार है जिसने विकास की भूख पैदा की है. आत्ममुग्ध प्रवक्ता खुद को संबित पात्रा का बाप समझ रहा था और जो कुछ बकना था बक रहा था. प्रवक्ता ने टीवी डिबेट के अंत में जोर देकर कहा है- 11 दिसम्बर को जब सूरज उगेगा तो छत्तीसगढ़ में एक नए तरह का उजाला देखने को मिलेगा.एक बार फिर भाजपा की सरकार बनेगी और मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह चौथीं बार मुख्यमंत्री बनेंगे, लेकिन 11 दिसम्बर को भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव की पिक्चर रीलिज हो चुकी थीं. इस पिक्चर के रीलिज होने के साथ छत्तीसगढ़ के गोदी मीडिया ने पलटी मारी और अपने महान तरह के विश्लेषण में यह बताया कि कैसे भूपेश ने कांग्रेस को आक्सीजन जोन से बाहर निकालने में सफल हुए. कैसे टीएस सिंहदेव सबको साथ लेकर चलने में कामयाब हुए. छत्तीसगढ़ के छोटे- बड़े सभी चैनल में बड़े-बड़े संपादक गला फाड़-फाड़कर यह बताने में लग गए कि कांग्रेस ने खुद को कैसे स्टैंड किया. छत्तीसगढ़ आदिकाल से कांग्रेस का गढ़ रहा है.. यहां कभी भाजपा अपने पैर जमा ही नहीं सकती थीं आदि-आदि. गोदी मीडिया यह तो बता रहा है कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस किसानों का कर्जा माफ, धान का बोनस, बिजली बिल हाफ सहित अन्य कई वादों की वजह से सत्ता में आ गई है, लेकिन यह नहीं बता रहा है कि किन मंत्रियों और अफसरों के कारनामों की वजह से भाजपा का सुपड़ा साफ हुआ है. एक राष्ट्रीय चैनल एबीपी न्यूज में अशोक वानखेड़े ने अमन सिंह और मुकेश गुप्ता जैसे अफसरों के नामों का उल्लेख करते हुए बेहद दमदारी के साथ कहा कि राज्य को चौपट करने में इन अफसरों की भूमिका बेहद खतरनाक थी, लेकिन अब भी यहां का मीडिया राज्य की बरबादी के लिए इन अफसरों ( इन जैसे और कई अफसरों ) को जिम्मेदार मानने को तैयार नहीं है.
वैसे यह कम गंभीर बात नहीं है कि जिस मुकेश गुप्ता ने भाजपा के आदिवासी नेता नंदकुमार साय के पैर तोड़ दिए थे उस मुकेश गुप्ता को सरकार ने 15 सालों में फलने-फूलने का भरपूर मौका दिया. मुकेश गुप्ता का नाम कभी मदनवाड़ा में पुलिस और माओवादियों के बीच हुए मुठभेड़ में जुड़ता रहा तो कभी झीरमघाट के नरसंहार में. मुकेश गुप्ता वहीं शख्स है जिन्होंने नागरिक आपूर्ति निगम के घोटाले की धरपकड़ में डायरी पकड़ी थीं और उस डायरी में मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह और सीएम मैडम का जिक्र आया था. यह अलग बात है कि जो अंतिम चालान पेश किया गया उसमें न तो सीएम का उल्लेख किया गया और न ही सीएम मैडम का. कमोबेश ऐसी ही विवादास्पद स्थिति मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव अमन कुमार सिंह की भी बनी. खुद को बाबूश-फाबूश डॉट कॉम में पावरफूल घोषित करने वाले इस अफसर की भूमिका पुराने हिंदी फिल्मों के खलनायक केएन सिंग की तरह ही थी.
अगर आप पुरानी सस्पेंस फिल्मों के शौकीन है तो कभी केएन सिंग की फिल्म भी अवश्य देखिए. पर्दें के पीछे एक परछाई नजर आएगी और टेप में भारी-भरकम
आवाज. केएन सिंह फिल्म के हीरो के साथ नजर आएगा और आप यानि जनता समझती रहेगी कि पर्दें के पीछे नजर आने वाला शख्स ही खलनायक है. जबकि खलनायक वह निकलता था जो हीरो के साथ खड़े रहता था. छत्तीसगढ़ में भी खलनायक वहीं अफसर थे जो जनता के साथ खड़े थे. इन अफसरों के इशारों पर किसानों पर लाठियां बरस रही थीं. शिक्षाकर्मी पीटे जा रहे थे. बस्तर और सरगुजा के बेगुनाह मासूम आदिवासी मौत के घाट उतारे जा रहे थे. असहमति व्यक्त करने वालों के बीच भय और आंतक का एक ऐसा वातावरण निर्मित हो गया था कि लोग कहने लगे थे- कोई ईश्वर भी है क्या… अगर हैं तो क्या उसे अत्याचार नजर नहीं आता है. क्या कोई बदुआ होती है. अगर होती है तो इन जालिमों को लगती क्यों नहीं है.
ऐसा नहीं है कि प्रदेश में अपने काम के प्रति निष्ठावान और प्रतिबद्ध अफसरों की कमी है, या उनका टोटा है, लेकिन ऐसे सभी सभी अफसर असली केएन सिंग से परेशान थे. अफसर जानते थे कि पर्दें के पीछे नजर आने वाली परछाई भी अमन सिंह की है और हीरो के साथ खड़े रहकर खुद को पाक-साफ बताने वाला अफसर भी अमन सिंह ही है. छत्तीसगढ़ के अफसर अमन सिंह और मुकेश गुप्ता की जुगलबंदी से परेशान थे. प्रतिबद्ध अफसरों के एक बड़े वर्ग ने कुछ समय पहले कांग्रेस के शीर्ष नेताओं और दिल्ली के पत्रकारों को दस्तावेजों के साथ यह जानकारी दी थीं कि कैसे ये दो अफसर अन्य अफसरों पर अनैतिक काम के लिए दबाव बनाते हैं और किस तरह के गोरखधंधे में लिप्त है. अफसरों की माने तो भ्रष्टाचार की बड़ी धनराशि नेत्र चिकित्सालय में वैध करने के लिए ही डोनेट की जाती थीं.
मुख्यमंत्री के सिंह कुनबे में अमन सिंह ने जब इंट्री ली थी तब उनकी बोली-बानी और कामकाज के तौर तरीकों को लेकर अफसर और पत्रकार खूब तारीफ करते थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने प्रशासनिक कामकाज पर ऐसा कब्जा जमाया कि होनहार अफसर साइड लाइन हो गए. जो साइड लाइन नहीं हुए उन्हें गुलाम बना दिया गया. ऐसे गुलाम अफसरों में भारतीय प्रशासनिक सेवा 2010 बैच के बाद के बहुत से अफसर शामिल है. अब जबकि सरकार बदल गई है तब अफसरों का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस के नेताओं और पत्रकारों को खुलकर जानकारी दे रहा है कि दोनों अफसरों ने कैसा-कैसा भयानक गुल खिलाया है. यह तो तय है कि आने वाले दिनों में इन दो अफसरों के अलावा भाजपा के इशारों पर काम करने वाले बहुत से अफसरों पर गाज गिरेगी, लेकिन यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि अफसरों की करतूतों ने मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह के चेहरे को जबरदस्त ढंग से मलिन किया जिसका खामियाजा उन्हें चुनाव में भुगतना पड़ा है. हाल के दिनों में सांसद रमेश बैस, नंदकुमार साय , बंशीलाल महतो, देवजी पटेल सहित अन्य कई नेताओं का स्टिंग सामने आया है. इस स्टिंग में रमेश बैस साफ तौर पर कहते हुए दिखते हैं कि रमन सिंह सीएम है, मगर अमन सिंह तो सुपर सीएम है.
तो सुपर सीएम नए अफसरों का गिरोह बनाकर नियम-कायदे से परे जाकर काम करता था वहीं पुलिस अफसर छापे-फापे का भय दिखाकर आंतकित करता था. ऐसा नहीं है कि पन्द्रह सालों में रमन सिंह की सरकार ने कोई काम ही नहीं किया. अगर काम नहीं होता तो तीन मर्तबा जनमत नहीं मिलता, लेकिन चौथीं मर्तबा सरकार अफसरों के खतरनाक चंगुल में फंस गई. राजनीति के व्यावहारिक फैसलों पर अफसरशाही हावी हो गई और हर वर्ग अपने को डरा-सहमा सा महसूस करने लगा. शहर और गांव-गांव में परिवर्तन का नारा तो गूंजा , लेकिन इसके साथ ही लोगों ने एक बात और सुनी- अगर चौथीं बार भाजपा आ गई तो अमन सिंह मार डालेगा. मुकेश गुप्ता झूठे मामलों में फंसा देगा. वर्ष 2000 से लेकर 2003 तक जब प्रदेश में जोगी की सत्ता थीं तब लोग यह कहते हुए पाए जाते थे- अगर जोगी रिपीट हो गए तो जीना मुहाल हो जाएगा. कमोबेश 2003 की स्थिति 2018 में भी देखने को मिली. इस 11 दिसम्बर को जब सत्ता का अंत हुआ तो लोगों ने खुलकर कहा- अच्छा हुआ चले गए… नहीं तो आग भूकते. सुबह-सुबह छत्तीसगढ़ के एक लेखक ने फोन लगाकर कहा- चलो… कहीं घूमने चलते हैं. पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि आज छत्तीसगढ़ की सुबह थोड़ी अलग है. न जाने क्यों लग रहा है कि यहां की हवाओं में फैलाया गया नफरत का जहर बुझ गया है. सरकार की बंदूक हर रोज यहां के निहत्थे आदमी को डरा रही थीं, लेकिन अब बंदूकों का रुख मुड़ गया है.