‘अंजन कुमार’..
साभार-अपना मोर्चा डॉट कॉम..
वर्तमान भारतीय समाज सांप्रदायिक दौर से गुजर रहा है. ऐसे समय जब सांप्रदायिक शक्तियां धर्म, जाति और भाषा के नाम पर देश की एकता अखण्डता और समरसता को नष्ट करने पर तुली हुई है तब प्रेमचंद को याद करना और अधिक प्रासंगिक हो जाता है. इसकी एक वजह यह भी है कि प्रेमचंद का सारा संघर्ष भाई-चारे को तोड़ने वाली ताकतों के खिलाफ ही था.अपनी कालजयी रचनाओं में प्रेमचंद ने सांप्रदायिकता की जड़ों का, उसे पल्वित और पुष्पित करने वाली शक्तियों का, उसके विभिन्न छद्म रूपों तथा इन रुपों से किसके हित सधते हैं उसका बेहद बारीकी से विश्लेषण किया है.
उनकी दृष्टि इस विषय पर बिल्कुल साफ थी. वे प्रारंभ से ही सांप्रदायिकता और उसके आर्थिक स्वार्थ के संबंधों को समझ रहे थे. यही कारण है कि प्रेमचंद के साहित्य का अधिकांश हिस्सा खुले तौर पर सांप्रदायिक ताकतों से विद्रोह करता हुआ दिखाई देता है. उन्होंने सेवासदन, कायाकल्प, प्रेमाश्रम, कर्मभूमि, रंगभूमि, गबन, गोदान जैसे उपन्यास तथा पंच परमेश्वर, विचित्र होली, जुलूस, मुक्तिधन, क्षमा, डिक्री के रूपए, मंदिर मस्जिद, लैला, न्याय, दो कब्रें, ईदगाह, जिहाद, तगादा, दिल की रानी, बौड़म जैसी कहानियों में पूरी शिद्दत के साथ सांप्रदायिकता पर करारा प्रहार किया है. उनकी रचनाओं के अधिकांश पात्र धर्म की संकुचित मानसिकता के दायरे से मुक्त होकर अपने-अपने धर्म पर आस्था रखते हुए दूसरे धर्म तथा उसको मानने वालों के प्रति उदार नजरिया रखते हैं.
प्रेमचंद धर्म के बारे लिखते हैं- धर्म का संबंध मनुष्य से और ईश्वर से है. उसके बीच में देश, जाति और राष्ट्र किसी को भी दखल देने का अधिकार नहीं हैं. हम इस विषय में स्वाधीन हैं. हम मस्जिद में जाए या मंदिर में. हिन्दी पढ़ें या ऊर्दू. धोती बांधे या पाजामा पहनें हम स्वाधीन हैं. धर्म के नाम पर राष्ट्र को भिन्न- भिन्न दलों में विभक्त करना ईश्वर और मनुष्य के संबंधों को राष्ट्रीय मामलों में घसीटकर लाना भारत कभी गंवारा नहीं करेगा.
उन्होंने आगे यहां तक लिखा है- अगर आपके धर्म में कुछ ऐसी बातें हैं जो राष्ट्रीयता की परीक्षा में पूरी नहीं उतरती. सभी के हितों में बाधक होती हैं तो उन्हें त्याज्य समझिए. उनके अनुसार समाज में जितनी अनीति है. उसमें सबसे घृणित धार्मिक पाखण्ड है.
वे बहुत अच्छी तरह जानते थे कि सांप्रदायिकता कभी संस्कृति, कभी इतिहास, कभी भाषा तो कभी क्षेत्रीयता का लबादा ओढ़कर आती है. उन्होंने अपने एक लेख में साफ तौर पर लिखा है- सांप्रदायिकता को अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है. इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है. हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है. मुसलमान अपनी संस्कृति को. मगर अब न मुस्लिम संस्कृति है न हिन्दू. अब संसार में केवल एक संस्कृति है-आर्थिक संस्कृति. मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए जा रहे हैं. वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है. निरा पाखंड. और इसके जन्मदाता भी वही लोग हैं जो सांप्रदायिकता की शीतल छाया में बैठकर विहार करते हैं. संस्कृति अमीरों का, पेट भरे हुए लोगों का, बेफिक्रों का व्यसन है. द्ररिद्रों के लिए प्राण रक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है.
उन्होंने 1934 में ज्योतिप्रसाद निर्मल के एक निबंध के उत्तर में लिखा है- यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि जब तक यह सांप्रदायिकता और अंधविश्वास हमसे दूर न होगा. जब तक समाज को पाखण्ड से मुक्त न कर लेंगे तब तक हमारा उद्धार नहीं होगा. प्रेमचंद अपने पूरे साहित्य में सांप्रदायिकता की लड़ाई इसी वैचारिक धरातल में लड़ते हैं. उनकी कहानी के पात्र न तो हिन्दू हैं न मुसलमान और न ही इसाई. वे सही मायने में सिर्फ इंसान हैं. ऐसे इंसान जो अपने अधिकारों के संघर्ष में धर्म को बीच में आने नहीं देते.
कर्मभूमि का गजनबी कहता है- यह दौलत का जमाना है.अब कौम में अमीर और गरीब, जायदाद वाले और मरभूखे अपनी-अपनी जमात बनाएंगे. उनमें कहीं ज्यादा खूंरेजी होगी. आखिर एक दो सदी के बाद दुनिया में एक सल्तनत हो जाएगी. सबका कानून एक होगा. एक निजाम होगा, कौम के खादिम कौम पर हुकूमत करेंगे. मजहब शख्सी चीज होगी. इसी उपन्यास की पठानिन कहती है- धनी लोग हम गरीबों की बात क्या पूछेंगे. हालांकि हमारे नबी का हुक्म है कि शादी ब्याह में अमीर-गरीब का ख्याल न होना चाहिए. पर हुक्म को कौन मानता है… नाम के मुसलमान.
प्रेमचंद अच्छी तरह जानते थे अधिकांश जनता अनपढ़ और पिछड़ी हुई है. उसे सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा बहकाया जा सकता है. इसलिए उन्होंने आम जनता को शिक्षित करने के साथ-साथ इस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित भी किया. अब यह काम आज के साहित्यकार कहां कर पाते हैं.उन्होंने कर्बला नाम का एक नाटक हिन्दू- मुस्लिम एकता को मजबूत करने के उद्देश्य से ही लिखा था.
उन्होंने कायाकल्प तथा अन्य कहानियों में सांप्रदायिक के बीच आपसी सौहार्द को बेहद खूबसूरत ढंग से प्रदर्शित किया है. बहुत से लोग मानते हैं कि प्रेमचंद केवल हिन्दूओं का विरोध करते थे जबकि वे बेहद मारक ढंग से मुस्लिम संप्रदायवाद के खिलाफ भी चोट करते थे. देखा जाय तो वे किसी भी वर्ग, वर्ण, जाति, धर्म, संप्रदाय के खिलाफ नहीं थे. बल्कि उनका विरोध टुच्चेपन से, अमीरी और गरीबी के फर्क से और फरेब से था.
आज जबकि देश भयावह संकट के दौर से गुजर रहा है. हर तरफ से यही आवाज आ रही है कि हम सबसे अंधेरे समय में जीने को मजबूर है तब प्रेमचंद का साहित्य हमारे भीतर उम्मीद की लौ जलाता है. भाईचारे की साझा संस्कृति और परंपरा पर चलने वाले संवेदनशील लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि मशाल कैसे जलानी है. हत्यारें और खून के प्यासे भेड़िए तो कभी नहीं जान पाएंगे कि प्रेमचंद कौन थे?