‘हम बिखर- टूट गए’ मिलार्ड ! अब लोकतंत्र आपके हवाले
बिलासपुर. सुन लो विरोध करने वाले विपक्ष या मीडिया वालों? सरकार की नाक पर मक्खी भी नहीं बैठना चाहिए। वरना, पुलिस के हाथ इतने लम्बे हैं कि चार घंटे में गाजियाबाद पहुंच जाते हैं। टॉप टू बॉटम, विधायिका और कार्यपालिका का अवैध गठजोड़ यानी सुरसा का मुंह हर विरोध करने वाले को निगल रहा है। हमें माफ कर देना साथी विनोद वर्मा ! इस बुरे दौर में हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए देश के तीसरे स्तंभ अदालतों से मरसी अपील कर रहे हैं कि मिलार्ड ! अब आप लोकतंत्र सम्हालों, नहीं तो आगे आपकी भी बारी है।
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए।
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।।
दुष्यंत कुमार की यह लाइनें, देश-प्रदेश में लोकतंत्र की वर्तमान हालत पर सच में खरी उतरती लग रही हैं। हमसे गलती तब हो गई, जब देश में कांग्रेसमुक्त अभियान चलाया गया। हमने महज इसे सियासी अभियान समझा। लेकिन नहीं, यह लोकतंत्र के लिए सबसे जरूरी विपक्ष को खत्म करने का पहला हमला था। शेष विपक्ष को कहीं तोड़ा गया-कहीं जोड़ा गया। दूसरी तरफ अफसरों को खुली छूट दे दी गई। बस यहीं से विधायिका और कार्यपालिका का अवैध गठजोड़ बना। जो धीरे-धीरे बहुमत के दम पर निरंकुश होने लगा। विपक्ष खत्म होने के बाद नम्बर आया प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ का। क्योंकि इसका काम भी सत्ता की नाकामियों को उजागर करना या ये समझों की एक तरह से विरोध करना ही होता है। लिहाजा उसे भी मुक्त करने की मुहिम चली। कहने में कोई शर्म नहीं है मिलार्ड की हम कहीं बिखर गए और कहीं बंट गए। साढ़े तीन सालों में इसकी भी बड़ी रोचक कहानी है। बेचारे इलेक्ट्रॉनिक चैनल वालों को तो गोदी मीडिया का दाग लग ही चुका है। सुनते हैं कि उसे गोद लेने के लिए गुजरात के नामी पूंजीपति फलांनी को एक दर्जन से अधिक चैनलों के शेयर लेने पड़े या लम्बा पैकेज देना पड़ा। मतलब ये कि बेचारा हमारा चैनल मालिक बिक गया साहब। इसलिए कि वह अगर नहीं बिकता तो एनडीटीवी की तरह छापे और जांच पड़ताल के नाम पर उसे नंगा होना पड़ता। फिर बारी आई प्रिंट मीडिया की। मजीठिया से बचने के लिए पहले ही यह समाचार उद्योग, राज्य सरकारों के दबाव में है। ऊपर से गोदी सरकार की नई विज्ञापन नीति ने छोटे और मंझोले अखबार का दाना पानी बंद कर दिया। कहते हैं देश में बत्तीस हजार से ज्यादा अखबार बंद हो गए। यानी लाखों पत्रकार बेरोजगार कर दिए गए। मिलार्ड जब हम अखबार छापते हैं न, तो पता है उसकी लागत क्या आती है? दस से बारह रुपए मात्र। इस पर आप हमसे फोकट में या दो रुपए से ज्यादा देकर खदीदना और पढऩा पसंद नहीं करते। अब बताओ? घाटे में चलने वाली न्यूज पेपर इंडस्ट्रीज को सरकारी मदद मिलना चाहिए या नहीं। उस पर से जीएसटी लगाकर सरकार आपने तो इस उद्योग का पूरा जनाजा निकाल दिया। अरे साहब, आजादी के बाद से समाचार पत्रों को सरकारी दबाव से दूर रखने के लिए टैक्स या किसी सरकारी नियंत्रण से पृथक रखा जा रहा था न। रियायती कागज-सरकारी विज्ञापन इसी लिए तो दिए जा रहे हैं कि यह सेक्टर डूबे मत। बेशर्मी की तो हद कर दी सरकार आपने? आप अपने दिए विज्ञापन पर ही जीएसटी काट ले रहे हो।
वैसे आपने हमें सवाल करने लायक तो छोड़ा नहीं पर संविधान प्रदत्त अधिकारों के तहत यह गुस्ताखी कर ही लेते हैं। जरा सोचो, सत्ता अजर-अमर तो है नहीं। खुदा न खास्ता कल आप विपक्ष में आ गए, तब आपकी डाली गई बेचारगी भरी आदत से लाचार और सत्ता के चापलूस बन चुके हम कमजोर पत्रकार आप (विपक्ष) के किस काम आएंगे? तब फिर हमारी बिरादरी को आप कोसेंगे ना। कहेंगे कि मीडिया बिक गया। आपको मजा भी तो नहीं आएगा कि सरकार के नियंत्रण में अखबार जगत रहे। नहीं ना। तो फिर क्यों उसकी निष्पक्षता को कम करने के नियम कायदे बना रहे हो। रहा सवाल इस अफसरशाही का। यह तो जन्मजात सत्ता की रखैल है। आज आपके लिए विरोधियों के गले में पट्टा और हाथों में हथकड़ी डाल रही है। कल विपक्ष में आप रहे तो यही सलूक आपके साथ भी करेगी। सुन लो सरकार- बुनियाद में जहर डालते हैं ना तो बागवानी का मजा मिलता है लेकिन जब यह फलते-फू लते हैं न तब आंसू बहाने पड़ते हैं। खैर छोड़ो, जो दही का रायता फै लना था, वो तो फैल ही गया। ऐसे में बड़े अखबार अपना मीडिया हाउस ले-देकर चलाएं या सरकार से लड़ें। ज्यादातर तो गोदी चले गए और लागत मूल्य कम करने के लिए पत्रकारों की छंटनी की और घटिया कागज पाठकों को पेल दिया। रायपुर में तो तीन सौ रुपए दिहाड़ी में पत्रकार रखने का सिलसिला चल पड़ा। लो साहब, इतने में तो चौक में कुली भी नहीं मिलता। ऊपर से जुमला यह कि कम वेतन में और बिना सुविधा के सरकार से लडऩे और ईमानदारी का ठेका भी हमीं पत्रकारों ने ले रखा है। इस चक्कर में दिहाड़ी मजदूरी और बोनस में सरकारी पुलिस के लात जूते खाएं, वो भी हमारा ही नसीब है साहब।
अब बारी आती है सोशल मीडिया की। आपको तो पता है कि राजस्थान की तुगलक रानी, इस क्षेत्र में विरोध करने वालों को दो साल की जेल भेजने वाला कानून ला ही रही थी। वो तो भला हो गुजरात चुनाव का और इलाके के दमदार पुराने मीडिया हाउस का। इसकी वजह से रानी पीछे हट गई। नहीं तो पूरे देश में विधायिका-कार्यपालिका के गठजोड़ (सुरसा) के खिलाफ बोलने पर सोशल मीडिया में पाबंदी लग जाती। अब रही बात पत्रकार संगठन और संस्थाओं की। ये हमें एकजुट करके सरकारी तंत्र पर दबाव बनाने का काम करते हैं जिससे थोड़ी बहुत राहत हमें मिलती थी। लेकिन हम बिल्ल्यिों के आपसी लड़ाई- झगड़े में सत्ता रूपी बंदर रोटी खा रहा है। बहुत शर्म आती है ये सब कहने में। लेकिन आप ही बताओ, असुरक्षा और बेरोजगारी के आलम में हम पत्रकार, सरकार और अफसरों की चापलूसी न करें , तो क्या करें और कैसे करें। बेचारे वेब पोर्टल बनाकर तो जी खा रहे हैं। कहां से लाएं ताकतवर सत्ता के विरोध का दमखम। इसीलिए तो हम कहते हैं- हे मिलार्ड ! हम टूट गए-बिखर गए। अब घायल लोकतंत्र, न्यायपालिका यानी आपके हवाले है। हां , इतनी सावधानी रखना कि चौथे स्तंभ के ढहने के बाद अब न्यायपालिका की ही बारी है।
दुष्यंत जी कि वो लाइनों के अनुसार माना की पीड़ा, पर्वत के समान हो गई है। लेकिन उम्मीद है कि अब कोई गंगा निकलेगी। इसलिए ज्यादा निराश होने की भी जरूरत नहीं है। नोटबंदी और जीएसटी की अग्नि परीक्षा गुजरात चुनाव में होनी है। वहां का व्यापारी बहुत होशियार है। देश का मतदाताओं में ज्यादातर भले ही पढ़े-लिखे न हो लेकिन वे अच्छे दिन या बुरे दिन को महसूस कर लेते हैं। शायद असली मिलार्ड भी तो जनता की अदालत में मतदाता ही है। वही कुछ सबक देेने का काम करेगा लेकिन अभी इसमें समय है।
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मनोज शर्मा
(वरिष्ठ पत्रकार- छत्तीसगढ़)
पूर्व अध्यक्ष, बिलासपुर प्रेस क्लब