‘रवि शुक्ला’
पुलिस कप्तान की दुखती रग.
राजा भोज की एक कहानी (भोपाल नहीं) जो हीरे की खदान में से निकल कर काले हीरे को तौलने पहुंचे हैं बहुत इंटेलिजेंट है नए-नए ट्रिक्स अपनाते हैं पुलिसिंग की समझ भी है। लेकिन ऐसे अफसरों के लिए सियासत बड़ी बुरी चीज है किसी तरह तबादला तो पुलिस कप्तान ने हीरे की खदान से निकल कर काले हीरे वाले जिले में करा लिया।
लेकिन यहां काम इतना है कि संभाले नहीं संभलता है ऊपर से सब पर भारी मंत्री का क्षेत्र क्या करें क्या ना करें जो अपने हाथ में हैं वह तो कर ही सकते हैं। किसी का फोन या मैसेज आने से अब उनको जवाब देने तक का समय नही है या काम के प्रेशर के चलते वो रिप्लाई देना ही नही चाहते,राज्य के मुखिया के एक खास पंडित जी के सहारे तबादला तो करा लिया है, भले किसी से बात करे या न करे मगर मुखिया के खासमखास से वट्सप चैट तो हो ही जाती है, कोई बता रहा था कि पुलिस कप्तान का वट्सप चैट खासमखास घूम घूम के दिखाते हैं ताकि लोगों में एक आईपीएस से अच्छे रिश्तों के बलबूते उनकी साख बनी रहे, खासमखास की इतनी इज्जत है कि इस चक्कर में बेचारे कप्तान अपने बैचमेट के फोन और मैसेज से परहेज करने लगे है।
“हंसमुख” की नाव, “लाल” का चप्पू.
सिम्स से भिड़ने वाले नेता की नौटंकी,जरहाभाठा के छुटभैये (जेल कट्टी) की नेतागिरी,चखना दुकान चलाने व कुछ मैनजमेंट देखने वाले का एटीट्यूड और स्वास्थ्य विभाग मे ठेकेदार की चमचई, सब मिलाकर हंसमुख पांडे की नाव में चार छेद हो चुके हैं। ऐसा ही चलता रहा तो लोगों को जल्द ही वह कहावत याद आएगी,जो कहा जाता है की पाण्डेय जी पछताएंगे चने की रोटी खाएंगे।
ऐसे ही लोग नहीं बोलते कि बीजेपी जीतती थोड़ी है, कांग्रेसी अपने कर्म से हारते और इस गुणसूत्र को भाजपा के लाल बेहतर तरीके से समझते हैं इसलिए मोहल्ले मोहल्ले लोगों के सुख-दुख में जाकर अपना चप्पू चलाए पड़े हैं। क्योंकि उनको पता है शहर में कांग्रेस की चार छेद वाली नाव आज नहीं तो कल डूबेगी,पर पता नहीं क्यों कांग्रेस संगठन देख सुन कर भी इन सब को संज्ञान में नहीं ले रहा है, हालांकि कांग्रेस की यह बीमारी शहर से जुड़ी नहीं है बल्कि प्रदेश और राष्ट्रीय क्षितिज पर माटी मिलाई जा रही है। महाराज को समझना चाहिए की हंसने-बतियाने से सियासत नहीं चलती थूक में लाडू (लड्डू ) नहीं बनते हैं।
भूगोल के पीछे का गणित.
हाल के दिनों में पुलिस का भूगोल बिगड़ा हुआ सियासत की दहलीज पर कदम रखने का खामियाजा नामी-गिरामी पुलिस अफसरों को एक दिन भुगतना ही पड़ता सबको पता है की भूगोल कांड क्या है, लेकिन भूगोल के पीछे की केमिस्ट्री और गणित क्या है यह हम आपको बताते हैं।
जो फ्रंट में आए वह हीरो बन गए और निपट गए लेकिन जिन्होंने पिक्चर प्लान की थी उनका क्या, सिविल लाइन एक इंतजाम अली सिपाही (अभी कोतवाली में) ने मैडम के इशारे पर अब ये मत पूछियेगा की कौन मैडम,पूरा इंतजाम उसी ने किया,सिटी और कोटा की मैडम साहिबाओ (विथ हसबैंड) के लिए इंतजाम तो करना ही था सो किया। कौन जानता था कि इतना बवाल मच जाएगा। फोन कर सब को बुलाया गया,दो महिला थानेदार भी आई तो वही कुछ समय पर आएं तो कुछ बेचारे लेट हो गए और जो लेट हो गए वह फस गए इसी को कहते हैं कि खाए पिए कुछ नहीं गिलास तोड़े चार आना,इस बवंडर के बाद जमकर मीडिया बाजी हुई कई लोगो को घण्टी घुमाई गई। वो कहावत है न कि दो की लड़ाई में अक्सर तीसरा फायदा उठा लेता है बिल्कुल हुआ भी यही,सिटी की मैडम से अपनी कसक निकालने का इससे अच्छा मौका क्या मिलता सो एक टीआई ने पूरे मामले में नमक – हल्दी मिलाने के साथ आग में जमकर घी डालने का काम किया इससे हुआ ये की जिसे नही पता था उसे भी पता चल गया और बात ऊपर लेवल तक पहुंच गई, खैर वैसे तो पुलिस वालों के प्रति लोगों के मन में सद्भावना तो होती नहीं फिर भी परिवार पर बाउंसिंग होने से लोगों का दिल पसीजा हुआ है भगवान भला करे कार्रवाई का शिकार हुए पुलिस इन भद्र जनों का.
दुर्गोत्सव और सामाजिक सरोकार.
कोलकाता के बाद बिलासपुर में दुर्गा पूजा पर भव्यता देखी जाती है, पिछले दो साल से तो कोरोना ने ग्रहण लगा दिया था तो इस बार कोरोना के बादल थोड़े साफ हुए हैं एक बात तो माननी पड़ेगी कि कोरोना ने लोगों को बहुत कुछ सिखा दिया। लेकिन कुछ सामाजिक और धार्मिक परंपराएं तोड़ी तो कुछ सीख भी दी.
भले ही लोग उन पर अमल करें या ना करें पर इस बीमारी ने कुछ अच्छाई भी दी जैसे हाथ धोना,मुंह ढक के चलना आदि – आदि कोरोना हो या ना हो इसका पालन करते रहने में क्या बुराई है, यह तो तब और जरूरी है जब दुर्गा जी के दर्शन के लिए लोगों की भीड़ उमड़ेगी, कोरोना ने सीख बनाई गई है कि पंडाल छोटे हो,प्रतिमाएं छोटी कर दी गई है डिस्टेंस मेंटेन भी करना है,सब मिलाकर दुर्गा उत्सव का खर्चा कम हो गया लेकिन चंदा तो उतना ही लिया जा रहा है। हालात यह है कि कई उत्सव समितियों के पास इतना माल आ जा रहा है कि उनको समझ नहीं आ रहा कि खर्च कहां और कितना करें,वैसे तो डीजे में थिरक लेंगे कितना लाइट बिजली वालों को दे देंगे,यही तो समय है सोच बदलने का की जरूरी है पहले उत्सव समितियां बचे हुए पैसों से आर्केस्ट्रा ,सांस्कृतिक कार्यक्रम राम व रासलीला ,भजन आदि के आयोजन के कर सामाजिक सरोकार निभाती थी लेकिन अब यह देखने को नही मिल रहा है एक बार फिर कि मांग है कि सारे नियमों का पालन कर ऐसे सामाजिक सरोकार निभाने समितियां आगे आए।