‘रवि शुक्ला’
वेटिंग यूपी चुनाव.
कहते हैं यूपी चुनाव से होकर दिल्ली का रास्ता जाता है। अब इसका तो पता नहीं लेकिन इस चुनाव से एक पगडंडी जरूर छत्तीसगढ़ तक पहुंचती दिख रही है और इसका नाम है ढाई ढाई साल, सत्ता में किसका जीवन कब तक है यह आलाकमान तय करता है। उसने तो कका और बबा में ढाई साल फिक्स कर दिया था पर बीच में यूपी चुनाव में रोड़े अटका दिया।
कका के ढाई साल पूरे होने के बाद साल भर का और एक्सटेंशन मिल गया, मार्च में चुनाव के निपटने ही फिर सियासत उथल पुथल के संकेत मिल रहे हैं। यह सुनी सुनाई बात नहीं है बल्कि टॉप लेवल के अफसर दोनों तरफ संबंध बनाने के लिए बेताब दिख रहे हैं,सियासत तो है क्या पता कब किसका भाग्य का पासा पलट जाए, अपन तो कहते हैं बस लगे रहो।
आईपीएस दिव्य अंग.
छत्तीसगढ़ में एक दिव्य अंग आईपीएस है। डायरेक्ट भर्ती स्वभाविक है अब इतना सिर खपा कर भर्ती हुए हो तो इसका मतलब साफ है, उसमें में जुनून तो होगा ही, जुनून भी ऐसा जो सिर चढ़कर बोलता है, तो कहां की किसी की सुनाई देती है।
सरकारी नौकरी में जो सरकार की नहीं सुनता वह कहां टिकता है। जुम्मा-जुम्मा 6 महीना नहीं हुआ और बेचारे आईपीएस को उत्तर बस्तर नसीब हो गया। अब इतना भी जुनूनी नहीं होना चाहिए कि लोग उसे सनक का नाम देने लग जाए। अरे कोई बुजुर्ग सिपाही को कड़ाके की सर्द में परेड में खड़ा करता है क्या, पी केप के बदले अपने पंसद की बैरेट केप कौन आईपीएस लगाता है। मातहतो से आर्थिक लाभ भी लेना और उन पर विश्वास रत्ती भर का नही,सरकार के गिनेचुने विधायक उनकी भी बात को दर किनार करना,सुबह आँख खुली की नही मातहतो को वर्चुअल क्लास लेना अरे इतना भी न करो कि विभाग के ही लोग कोसने लगे। लो हो गया न बंटाधार,कोई बता रहा था कि आईपीएस की सनक मिजाजी से परेशान होकर जिले से खिसकाने के वहां के विधायकों का इतना कान भरा गया कि सरकार ने पिछली ट्रांसफर लिस्ट में निपटा दिया। अरे भई आईपीएस ही तो बने हो कोई देवदूत तो नही न,अब लो करो माओवादियों से सनक मिजाजी.
बीजेपी की चवन्नी.
सिक्कों में आजकल चवन्नी चलना बंद हो गया। लेकिन बिलासपुर की सियासत में धरम की चवन्नी खूब चलती है। संगठन में तो वो और भी लाजवाब है। भाजपा की चवन्नी की खासियत यह है कि कोई छोटा हो बड़ा हो,सेठ हो या किसान सब से उनकी बनती है।
खुशमिजाज इतने की सबसे दुआ सलाम,न काहू से दोस्ती न काहू से बैर मृदुभाषी चवन्नी शायद इसलिए बीजेपी में 16 आने सिक्के के बराबर है। बड़े से बड़ा लीडरों का भले आपस में मतभेद हो लेकिन जब सहमति की नौबत आती है तब चवन्नी ही काम आती है। संगठन में चवन्नी दो दशक से घिस रही है, पता नहीं कब सत्ता में उन्हें आजमाया जाएगा। फिर भी कोई गिला नहीं कोई शिकवा नहीं.
मेनहत करे मुर्गी अंडा खाए फकीर.
राज्य में राजधानी के बाद सेकंड टॉप जिले में पिछले कुछ दिनों से तीन तरह की पुलिसिंग देखने को मिल रही है। पहला खुलेआम दे बत्ती थानेदारों की मौज और राजपत्रित अधिकारियों कि कोई पूछ परख नहीं, दूसरे आए बड़े साहब ने कम समय में जिले की पुलिसिंग कब बिगड़ा हुलिया सुधार दिया। डीएसपी स्तर के अफसरों को उनके सही डिवीजन पर बिठा दिया और पुलिसिंग में लगाम कसी.
अब एक अबला आई है जो सबला बनकर टूट पड़ी है। थानेदारों को सख्त निर्देश दिया है कि जुआ सट्टा अवैध कारोबार नहीं चलना चाहिए। शायद उनके इस फरमान का सेकंड लाइन के अफसरों को फर्क नहीं पड़ा सोचा होगा मैडम तो सीधी-सादी हैं तो सब चीज थानेदारों के मत्थे डाल रेलवे क्षेत्र में एक किशन कन्हैया के बंदों को सट्टा खिलाने का जुगाड़ सेट कर दिया। मैडम को पता चला तो सूद बेसुध किसी से कोई मतलब नहीं रखने वाले टीआई से ट्रैफिक कंट्रोल करवा दिया और दूसरे थानेदार को बोलकर किशन कन्हैया के चमचों को धरवा दिया। इधर इन सब दांवपेच के बीच शनि की वक्र दृष्टि के प्रकोप में चल रहे एक थानेदार का भला हुआ और उन्हें मैडम ने कई महीनों के बाद रेलवे क्षेत्र के थाने की कमान सौंप दी, चलो किसी का तो भला हुआ।
कमाल का चूना.
सरकारी कर्मियों को निजी अस्पतालों में ईलाज करवाने पर मेडिक्लेम की सुविधा सरकार द्वारा दी जाती हैं। महंगे अस्पतालों के भारी भरकम बिल को देखते हुए सरकार क़ी यह सुविधा सरकारी कर्मियों के लिए संजीवनी के समान है, पर कई सरकारी कर्मी इसका नाजायज फायदा भी उठा लेते हैं।
निजी अस्पतालों में ईलाज के बाद बिल भुगतान के लिए तय प्रक्रिया बनी हुई है। जिसके तहत सरकारी कर्मी बिल को पहले सिविल सर्जन के नाम आवेदन लिख कर जमा करवाते हैं। उसके बाद तकनीकी टीम बिल का परीक्षण कर मेडिक्लेम पास करती हैं। हाल ही में एक वाक्या जिले में सामने आया हैं। जिसमे शिक्षा विभाग के कर्मियों व शिक्षको के द्वारा बिना ईलाज के या कम के बिल को ज्यादा बनवा कर स्वास्थ्य विभाग से रकम वसूल कर ली हैं। इसमे कई तथ्य सामने आए हैं मेडिसिन के नाम से जो बिल पास हुए हैं, उनमें से अधिकतर एक खास दुकान से ही लिए गए हैं। जिसकी जांच अब शिक्षा विभाग के साथ ही स्वास्थ्य विभाग भी कर रहा हैं। बहरहाल जांच रिपोर्ट जो भी हो पर इससे इतर एक रोचक तथ्य यह भी हैं बिल पास करने वाले अधिकारी का खुद का ही शत प्रतिशत बिल पास नही हो पाया। बिल पर अंतिम स्वीकृति प्रदान करने का काम जिले के सिविल सर्जन करते हैं। इस वक्त सिविल सर्जन के प्रभार में सीएमएचओ डॉक्टर प्रमोद महाजन हैं। उनके स्वयं की माता जी अस्पताल में भर्ती थीं, पर खुद के स्वीकृति कर्ता होने के बाद भी श्री महाजन माताजी का शत प्रतिशत मेडिक्लेम नही पा सकें।