' मनोज शर्मा '
• राजनैतिक दलों ने मुद्दे खड़े करने शुरू किए ताकि चुनाव में भुनाए जा सकें.
देश भर में हिन्दू वर्सेज मुस्लिम का मुद्दा पिछले दस साल से खड़ा करके राजनैतिक दल अपने अपने वोट बैंक मजबूत करते रहे हैं । इसमें सर्वाधिक फायदे में भाजपा रही है । लेकिन पिछले चुनाव 2018 में इसका असर छत्तीसगढ़ में जीरो रहा और नतीजतन देश की हवा के उलट छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को 90 में से 70 सीटें हासिल हुई थी। तब से भाजपा के नीति निर्धारक आरएसएस ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के आदिवासी वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए धर्मांतरण का मुद्दा खड़ा करने अपने हिन्दूवादी संगठनों को झोंकना शुरू किया। इससे क्रिश्चन आदिवासी से गैर क्रिश्चन आदिवासी को अलग करने की मुहिम छिड़ चुकी है ताकि कांग्रेस को मिलने वाले आदिवासी वोट से 78 फीसदी भाजपा अपने साथ कर सके।
छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल राज्य है जहाँ संस्कृति, परंपरा और धार्मिक आस्थाएँ सदियों से सामाजिक ढाँचे की नींव रही हैं। यहाँ आदिवासी समाज प्रकृति पूजा और अपने पारंपरिक देवी-देवताओं की उपासना करता आया है। परंतु बीते तीन दशकों में धर्मांतरण का मुद्दा लगातार राजनीतिक और सामाजिक विमर्श का केंद्र बना रहा है। एक ओर इसे धार्मिक स्वतंत्रता और व्यक्तिगत अधिकारों से जोडक़र देखा जाता है, दूसरी ओर इसे आदिवासी समाज की जड़ों को कमजोर करने और राजनीतिक ध्रुवीकरण का साधन बनाने का आरोप भी लगता है। छत्तीसगढ़ और मध्य भारत के अन्य हिस्सों में 19वीं शताब्दी के अंत से ही मिशनरियों की गतिविधियाँ शुरू हुईं। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के माध्यम से उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों में गहरी पैठ बनाई। अंग्रेजी हुकूमत के समय ही ईसाई मिशनरियों ने गरीब और वंचित वर्गों को सेवा और सहयोग के नाम पर अपने धर्म से जोडऩे का प्रयास किया। स्वतंत्रता के बाद संविधान ने सभी नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता दी, परंतु इसके साथ ही "बलपूर्वक, लालच और धोखे से" धर्मांतरण पर रोक की व्यवस्था भी की गई। छत्तीसगढ़ (तब मध्यप्रदेश) में 1968 में धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम लाया गया, जिसे बाद में 2000 में छत्तीसगढ़ बनने के बाद और कड़ा किया गया।
बस्तर, सरगुजा, कोरबा, जशपुर और कांकेर सुलग रहा.
सरकारी जनगणना के अनुसार राज्य में ईसाई आबादी करीब 2% है, परंतु स्थानीय संगठनों का दावा है कि वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है, क्योंकि कई धर्मांतरित लोग खुद को अब भी "आदिवासी" या "हिंदू" लिखते हैं। बीते वर्षों में बस्तर और जशपुर जिलों में धर्मांतरण को लेकर झगड़े, गाँवों में सामाजिक बहिष्कार, और हिंसक टकराव के मामले सामने आए हैं। इसका सीधा लाभ भाजपा को मिलता आया है। छत्तीसगढ़ धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम, 1968 (संशोधित 2006) के अनुसार किसी भी व्यक्ति को बल, प्रलोभन या धोखे से धर्मांतरित करना अपराध है। धर्मांतरण से पहले प्रशासन को सूचना देना भी अनिवार्य है। मगर इस कानून का इस्तेमाल प्रदेश में अब तक बेहद कम रूप से हुआ है। अब प्रदेश में और केन्द्र में भाजपा की सत्ता है जिसकी ताकत से इस मुद्दे को हवा देकर कानूनी कार्रवाई होने लगी है। इस वजह से प्रदेश के बड़े इलाके बस्तर, सरगुजा, कोरबा, जशपुर और कांकेर सुलग रहा है।
सामाजिक प्रभाव से आदिवासियों में विभाजन.
धर्मांतरण का सबसे बड़ा असर सियासत के साथ साथ अब आदिवासी समाज की सांस्कृतिक एकता और परंपराओं पर देखा जा रहा है। आदिवासी समाज जो सरहुल, नरबलि, और ग्रामदेवता की पूजा करता था, उसमें अब विभाजन स्पष्ट दिखने लगा है। कई गाँवों में धर्मांतरित और गैर-धर्मांतरित समुदायों के बीच त्यौहार, सामुदायिक निर्णय और भूमि अधिकारों को लेकर विवाद होने लगे हैं। गैर-धर्मांतरित आदिवासी अक्सर धर्मांतरितों को सामाजिक कार्यक्रमों और उत्सवों में भाग लेने से रोक देते हैं। धर्मांतरित परिवार मिशनरी संस्थाओं से बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त कर पाते हैं, जिससे वे आर्थिक रूप से कुछ हद तक आगे निकल जाते हैं। इसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया गैर क्रिश्चन आदिवासी में होने लगी है जो भाजपा की सरपरस्ती में अब खुलकर आक्रोश के रूप में सामने आ रही है।
धर्मांतरण पर छत्तीसगढ़ की राजनीति गहराई से विभाजित.
भाजपा धर्मांतरण को "संस्कृति पर आक्रमण" बताकर इसे रोकने के लिए कठोर कानून और "घर वापसी" अभियानों की वकालत करती है। चुनावों में यह मुद्दा भाजपा के लिए आदिवासी वोट बैंक को साधने का बड़ा हथियार बन रहा है। लेकिन कांग्रेस अपेक्षाकृत उदार रुख अपनाती है। वह धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक अधिकारों की बात करती है, परंतु भाजपा इसे "ईसाई मिशनरियों के संरक्षण" के रूप में प्रचारित करती है। बस्तर और सरगुजा के स्थानीय आदिवासी संगठनों में भी इस पर मतभेद हैं—कुछ धर्मांतरण का विरोध करते हैं, तो कुछ इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता मानते हैं। हर विधानसभा चुनाव से पहले धर्मांतरण और उससे जुड़ी हिंसा के मुद्दे गरमा जाते हैं। 2023 और 2024 के दौरान भाजपा ने इसे आदिवासी अस्मिता से जोडक़र बड़े स्तर पर भुनाया। शायद इसी वजह से कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ा और भाजपा की सरकार बनी।
सियासत बनाम वास्तविकता.
राजनीतिक दलों के बयानों और जमीनी स्थिति में बड़ा फर्क है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही धर्मांतरण को चुनावी हथियार की तरह इस्तेमाल करती हैं। आदिवासी क्षेत्रों की सबसे बड़ी समस्याएँ गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की कमी हैं। मिशनरी संस्थाएँ इन खामियों को भरकर धर्मांतरण का आधार बनाती हैं। यदि राज्य सरकारें इन क्षेत्रों में समुचित विकास करें तो धर्मांतरण का प्रभाव स्वत: घट सकता है। अल्पसंख्यक अधिकार बनाम बहुसंख्यक संस्कृति का यह संघर्ष संविधान के मूल अधिकार और सामुदायिक परंपराओं के बीच टकराव का रूप ले चुका है।
हाल के विवाद और घटनाएँ.
1. बस्तर (2022-23) कई गाँवों में धर्मांतरण को लेकर झगड़े हुए। कुछ स्थानों पर धर्मांतरित ईसाई परिवारों को गाँव छोडऩे पर मजबूर किया गया।
2. जशपुर (2021 एक ट्रक ने धार्मिक जुलूस में गाड़ी चढ़ा दी, जिसे सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास हुआ।
3. कानूनी कार्रवाई (2023) राज्य सरकार ने धर्मांतरण की निगरानी के लिए विशेष सेल बनाने की घोषणा की, जबकि विपक्ष ने इसे "दमनकारी" बताया।
राजनीतिक ध्रुवीकरण और सिविल सोसाइटी.
मीडिया इस मुद्दे को अक्सर सनसनीखेज तरीके से प्रस्तुत करता है। टीवी डिबेट में "धर्मांतरण बनाम घर वापसी" की बहस चलती है, जबकि वास्तविक समस्याएँ छिप जाती हैं। वहीं कुछ सामाजिक संगठन इसे मानवाधिकार के उल्लंघन के रूप में उठाते हैं। हालाकि धर्म की स्वतंत्रता और जबरन धर्मांतरण रोकने के बीच संतुलन बनाना कठिन चुनौती है। इस बीच आदिवासी अस्मिता की रक्षा और उनकी परंपराओं और संस्कृति को संरक्षित करना जरूरी है। इसके लिए जब तक आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की कमी रहेगी, धर्मांतरण की जमीन बनी रहेगी। छत्तीसगढ़ में धर्मांतरण केवल धार्मिक आस्था का विषय नहीं है, बल्कि यह सामाजिक अस्मिता, आर्थिक अवसर और राजनीतिक सत्ता के समीकरण से गहराई से जुड़ा मुद्दा है। इसे केवल "ईसाई मिशनरियों बनाम आदिवासी संस्कृति" के रूप में देखने के बजाय व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। राजनीतिक दलों को इसे चुनावी हथियार बनाने के बजाय आदिवासी क्षेत्रों के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पर ध्यान देना चाहिए। अन्यथा यह सुलगता मुद्दा आने वाले वर्षों में और अधिक गंभीर सामाजिक टकराव और राजनीतिक ध्रुवीकरण का कारण बनेगा।



