किशोर सिंह.
हिंदू धर्म में 16 संस्कार बताए गए हैं, जो गर्भधारण से लेकर मनुष्य के जीवन के अंतिम समय तक होते हैं। इन 16 संस्कारों से गुजरने के बाद ही मनुष्य का जीवन पूर्ण माना जाता है। ठीक इसी तरह वरिष्ठ पत्रकार और नवभारत बिलासपुर के संपादक श्री अरुण उपाध्याय जी की पहली पुस्तक आधा अध्याय में उन्होंने 16 कंडिकाओं में एक तरह से पत्रकारिता के संस्कारों को लिखा है। यदि कोई पत्रकार इन 16 पत्रकारिता और लेखन के आयाम से गुजर जाए, तो वह एक सफल और आदर्श पत्रकार होगा . इस पुस्तक में उन्होंने अपने 35 वर्षों के पत्रकारिता जीवन का पाठ सबके सामने रखा है । हर पाठ में मुझे अरुण भैया अलग-अलग रूप में पढ़ने मिले. कभी वह जमीनी पत्रकार नजर आते हैं, तो कभी अतिसंवेदनशील।
कभी वे साहसी और जिज्ञासु हैं, तो कभी वे रिश्तो को संजीदगी से निभाते हुए दिखाई पड़ते हैं। बहुत ही सहज,सरल भाषा में उन्होंने जीवंतता के साथ पुस्तक में इंद्रधनुषी रंग भरे हैं.अरुण भैया ने अपने जीवन के संघर्ष, अनुभव, आत्मीय पल साझा किए हैं। यह पुस्तक वैचारिक स्पर्श के साथ वैचारिक ऊंचाई और वैचारिक ऊष्मा प्रदान करती है. पुस्तक में लिखी कुछ बातें खोलता हुं। बस उतना ही जिससे आप सभी के मन में पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा बनी रहे। भैया ने एक बहुत ही आश्चर्यजनक और सच्ची स्टोरी लिखी है, जिसमें की रायपुर के पूर्व कलेक्टर की धर्मपत्नी को तीन जन्मों की बातें याद है, और वह इस जन्म में वह पिछले जन्म के 2 परिवार से रिश्ता निभा रही है. अपने तरह की यह देश की एकमात्र स्टोरी है, वास्तव में बात यह थी, कि भैया जी वह किसी खबर के सिलसिले में कलेक्टर साहब की पत्नी से मिलने गए हुए थे, और बात पूरी होने के बाद उन्होंने बरबस ही पूछ दिया , कि आपके मायका कहां हैं….? कलेक्टर साहब की पत्नी ने बताया कि मेरे दो मायके हैं, और मैं दोनों मायके से रिश्ते निभा रही हूं। इसके बाद यह स्टोरी सामने आ गई। जो इस पुस्तक में आपके सामने है। इसी तरह भैया ने अपने 35 साल के पत्रकारिता में एकात्म परिसर में प्रलय शीर्षक से आंखों देखी घटना को भी लिखा है। यह घटना निश्चित रूप से बहुत दुखद थी,लेकिन उनकी रिपोर्टिंग यह प्रेरणा देती है, कि पत्रकार को कितने धैर्य के साथ काम करना चाहिए। वे रिपोर्टिग के लिए एकात्म परिसर में धैर्य से बैठक के खत्म होने का इंतजार कर रहे थे, और बीच में ही एक ऐसी घटना हुई, जिसके वे चश्मदीद बने और एक तरह से लाइव करवेज किया। उनकी इस खबर ने उन्हें देश भर में एक नई पहचान दी. भैया ने अपने एक मित्र के पिताजी के स्वर्गवास के बाद 3 दिनों तक उनकी आत्मा इनके मित्र पर आने की स्टोरी भी लिखी है, बहुत ही रोचक है, जो विज्ञान और अध्यात्म को एक दूसरे के सामने सामने लाकर खड़ा करती है।
फाइनल ईयर पढ़ते हुए फर्स्ट ईयर की पुस्तक में लिखा अध्याय.
अरुण भैया की पढ़ाई के प्रति रुचि और विषय पर कमांड की प्रेरणादायक बात भी इस पुस्तक में उल्लेखित है वह यह है, कि जब वे ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे थे, तब उनके एक प्राध्यापक ने उनसे फर्स्ट ईयर की पुस्तक के लिए 3 अध्याय लिखने की बात कही। इस पर वे अचंभित रह गए , और कहां की मैं कैसे उस विषय का पाठ लिख सकता हुं . जिसके तीसरे साल की पढ़ाई कर रहा हूं, लेकिन भैया से ज्यादा विश्वास प्रोफेसर साहब का उन पर था। फिर बात बन गई और सभी जगह से डाटा इकट्ठा करने के बाद उन्होंने फर्स्ट ईयर की पुस्तक के लिए 3 अध्याय भी लिखें.
500 से वेतन शुरू हुआ सफर.
अरुण भैया ने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की पहली तनखा ₹500 से मिलने की बात से लेकर संपादक बनने तक के सफर को बहुत ही खुले मन से लिखा है। इसमें उनके संपादक के नाम चिट्ठी, मोहल्ले की समस्या, पाठकों के नियमित कॉलम में लेख प्रकाशित होने की बात के साथ साथ नवभारत, देशबंधु, दैनिक भास्कर, नई दुनिया जैसे कई बड़े अखबारों में काम करने के अपने छोटे और बड़े अनुभव को भी साझा किया है। प्रोफेशनल कल्चर के समय में यह पठनीय है।
इसलिए बिलासपुर में लिखी गई पुस्तक.
बिलासपुर रचनाशीलता और लोगों के मन को स्वीकार करने वाला शहर है, ये शहर हर किसी को अपना बना लेता है। लोगों के सपने को साकार भी करता है. 35 साल की सक्रिय पत्रकारिता में रहे संपादक जी को पुस्तक लिखने का समय नहीं मिल पाया. जब वे नवभारत बिलासपुर के संपादक बने, तब इस शहर ने उनके मन की बात सुनी, और पुस्तक लिखने की शुरूआत हुई। अरुण भैया लिखते हैं , कि मुझे बिलासपुर में आने के बाद इस पुस्तक को लिखने का अवसर मिला. इसके लिए इस शहर का शुक्रगुजार हूं.
नेता और नौकरशाह से रिश्ते.
स्वर्गीय विद्याचरण शुक्ल हों, दिग्विजय सिंह हों, स्वर्गीय नंद कुमार पटेल हों, डॉ रमन सिंह या कोई प्रदेश दिग्गज नेता हर किसी के मन में अरुण भैया के लिए एक विशेष स्थान था . भैया बड़े नौकरशाहों के दिल के करीब रहने वाले पत्रकार है। बड़े नेता और अधिकारी अपने काम के साथ-साथ रिश्तो के प्रति भी संवेदनशील होते है, और उसे अंतिम तक निभाते भी है। बशर्ते ऐसे रिश्ते बनाए जाएं। भैया ने ऐसे ही रिश्ते बनाए और निभाए भी। ऐसे कई किस्से पुस्तक में पढ़े जा सकते हैं। मरवाही में ढोला हेलीकॉप्टर….. शीर्षक से उन्होंने विद्याचरण शुक्ल जी के साथ बिताए कुछ आत्मीय पल को साझा किया है, और विद्याचरण शुक्ला के साहस को उल्लेखित किया है. गोलियों के बीच बची जान तो मिला आम…..में नक्सलियों के क्षेत्र में रिपोर्टिंग और उसके जोखिम को भैया ने लिखा है, और यह प्रमाण है। यदि रिपोर्टर मौके पर साहस से जाए , तो निश्चित रूप से बड़ी सफलता मिलती है. अंधेरे में 3 लाशों के बीच 10 मिनट…. इस बात को बताता है कि पत्रकार को हर स्थिति के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए.