‘राजकुमार सोनी’
पुष्पा पूरी तरह से एक मनोरंजक फिल्म है. यह फिल्म उन आत्ममुग्ध लोगों के लिए नहीं बनी जो हर दूसरे दिन फेसबुक पर यह बताते रहते हैं कि अमुक जगह से उनकी किताब छपकर आ गई है. यह फिल्म फेसबुक पर लाइव कविता-कहानी और विमर्श ठेलने वालों के लिए भी नहीं बनाई गई है. साठ और सत्तर के दशक के चूके हुए कारतूसों को इस फिल्म में सब कुछ बकवास नजर आएगा. जॉय मुखर्जी, अनिल धवन, धीरज कुमार और सुजीत कुमार जैसी जीवन शैली रखने वालों को भी यह फिल्म पसंद नहीं आने वाली हैं.
यह फिल्म उन लोगों के लिए बनी है जो टीवी पर मोदी का झूठ सुनकर और देखकर परेशान हो चुके हैं या परेशान चल रहे हैं. पूरी फिल्म आपको पूरे तीन घंटे तक एक अकल्पनीय और अविश्वसनीय दुनिया की सैर कराती है. फिल्म को देखते हुए आप अमिश देवगन, दीपक चरसिया अंजना ओम, सुधीर तिहाड़ी, नफरती चिंटू अर्णब गोस्वामी और रजत शर्मा के झूठ से भी थोड़े समय के लिए ही सही मगर मुक्ति पा सकते हैं. आदर्श और नैतिकता को खूंटी पर टांगकर सबसे ज्यादा आदर्श और नैतिकता पर ही प्रवचन देने वालों को भी यह फिल्म घनघोर ढंग से निराश कर सकती है. राजनीति, समाज और दीन-दुनिया से दूर गंभीर किस्म के लेखकों, बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों को इस फिल्म को देखने से बचना चाहिए. इस फिल्म में उनके लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जो उनके भीतरी तत्वों को सामान्य करने में झंडू पंचारिष्ट की तरह काम करता हो. इस चेतावनी के बावजूद जो लोग फिल्म देखने के इच्छुक हैं उनके बारे में सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि वे समय से पहले बूढ़े नहीं हुए हैं.
जमाना बड़ी तेजी से बदल रहा है. अब प्रकाश मेहरा वाली जंजीर का जमाना नहीं है. नई पीढ़ी के भीतर गुस्सा तो है, लेकिन वह 77 एमएम के पर्दे पर लात चलाकर अपने गुस्से को जाहिर नहीं करना चाहता. इस पीढ़ी के सामने झूठ-फरेब और चालाकी की जो दुनिया खड़ी कर दी गई हैं वह उस दुनिया से उसी चालाकी और फरेब से निपटना चाहता है. पुष्पा का किरदार जो अल्लू अर्जुन ने निभाया है वह किरदार तमाम तरह के गलत कामों के बावजूद अपनी मां और अपनी प्रेमिका का सम्मान करता है. इस किरदार को स्त्री जाति से नफरत नहीं है. यह किरदार औरतों को छिनाल नहीं बोलता और रात को अपनी प्रेमिका को ( केवल उसे ही भाव देने वाली ) लेखिका समझकर फोन भी नहीं करता है. यह किरदार दबंग है. स्टाइलिश है मगर प्यार का भूखा है. फिल्म में सस्ती सी लॉरी है. पुराने ट्रक है. हिरोइन की सस्ती सी मोपेड़ है. हीरो के कपड़े गंदे हैं. वह स्लीपर पहनता है. बीड़ी पीता है. जुबान भी शुद्ध और साफ नहीं है, लेकिन उच्च, मध्य और सामान्य वर्ग का दर्शक पुष्पा की हरकत को पसंद कर रहा है.
पुष्पराज उर्फ पुष्पा जैसा किरदार हजारों बार फिल्मों में दोहराया जा चुका है. पुष्पा एक नामी बाप की अवैध संतान है. वह बिना बाप के नाम के बड़ा होता है. पैसा कमाना चाहता है तो रिस्क लेता है. वह दीवार फिल्म के अभिताभ बच्चन की तरह मामूली मजदूर है, लेकिन लाल चंदन की तस्करी करने वालों के बीच मे रहकर काम करता है और उन्हें झटके पर झटके देता है. अपने रास्ते में आने वाले तमाम खलनायकों को वह अपने हथकंडों से धाराशाही करता है. फिल्म में मारधाड़, खून-खराबा, एक्शन, डॉयलागबाजी और आयटम नंबर सब कुछ जबरदस्त है. फिल्म का हीरो अल्लू-अर्जुन बहुत ही चालाक है. दमदार है. बातों को बाजीगर है और लुंगी में भी डैशिंग लगता है.
पिछले कुछ समय से दक्षिण भारतीय फिल्मों ने सब तरफ कब्जा जमा लिया है. इन फिल्मों की सबसे खास बात यह है कि वह मास एंटरटेनिंग है. इसके अलावा साउथ का सिनेमा गंभीर विषयों को भी दमदार तरीके से उठा रहा है. हाल ही में रीलिज हुई जय भीम इतनी ज्यादा चर्चित हुई कि उसे हर वर्ग ने देखा. एक्टर फाजिल फहाद की फिल्म मलिक की भी सब जगह तारीफ हुई. यदि आप कभी यूपी-बिहार, झारखंड, बंगाल, ओड़िशा जाय तो सैलून की दुकान, भोजनालय अथवा किराने की दुकानों पर टीवी चलते हुए पाएंगे. यहां साउथ की फिल्में आपको गरदा उड़ाते हुए मिल जाएगी. हिंदी फिल्मों के मुकाबले साउथ की फिल्मों का सबजेक्ट एक बड़े वर्ग के द्वारा इसलिए भी पंसद किया जा रहा है क्योंकि इन फिल्मों में एक्शन, ड्रामा होता है. कहानी गांव से प्रारंभ होती है और फिर शहर पहुंचती है. फिल्म में गांव भी दिखता है और शहर भी. जबकि हिंदी फिल्मों से गांव गायब हो गया है. तकनीक और पटकथा के स्तर पर भी साउथ का सिनेमा मजबूत दिखाई देता है. जो बुद्धिजीवी पुष्पा को देखकर अपनी बौद्धिकता बघार रहे हैं उन्हें शायद यह नहीं पता होगा कि अब हिंदी का आधे से ज्यादा सिनेमा साउथ की स्क्रिप्ट पर जाकर टिक गया है. एक जमाने में जितेंद्र, मिथुन और अभिताभ बच्चन जैसे स्टार दक्षिण भारतीय फिल्मों की डब फिल्मों में काम कर रहे थे तो अब हिंदी सिनेमा के अक्षय कुमार, अजय देवगन, सलमान खान, आमिर खान जैसे बूढ़े एक्टर जोर आजमाइश कर रहे हैं. हिंदी सिनेमा का कोई भी एक्टर एक या दो फ्लाप फिल्म के बाद दर्शकों की नजर से उतर जाता है. हिंदी सिनेमा के बूढ़े हीरो का तिलस्म टूट भी रहा है, लेकिन साउथ फिल्म इंडस्ट्री में ऐसा नहीं है. वहां एक्टर आपको चौकाने के लिए तैयार रहता है. बूढ़े तो रजनीकांत भी हो चुके हैं , लेकिन जब भी उनकी कोई मूवी रीलिज होती है वह रिकार्ड बना डालती है. साउथ में हर कलाकार की अपनी जबरदस्त फैन फॉलोइंग है. हिंदी बेल्ट में भी लोग प्रभाष, अल्लू अर्जुन, जूनियर एनटीआर, विजय देवरकोंडा को पहचानने लगे हैं.
बहरहाल पुष्पा ताबड़तोड़ कमाई कर रही है और इसके ताबड़तोड़ मीम भी बन रहे हैं. जब जनता किसी चीज़ के पीछे पागल हो जाती है तो फिर उसे मजा आने लगता है. हमको यह तो सोचना ही होगा कि पुष्पा ने हमारे भीतर के किस खालीपन को भरने का काम किया है. लोग कोरोना नाम की बीमारी से परेशान है. रोजी-रोटी के छिन जाने से परेशान है. राजनेताओं के झूठ और फरेब से परेशान है. कुछ तो ऐसा मिले जो परेशानी को कम करें. पुष्पा का एक गीत ही पूरी फिल्म का सार है- पत्तियों को खाती है किरणें / पत्तियों को खाता है बकरा / बकरे को शेर दबोचे / भूख से कोई न बचे. अभी चंद रोज पहले एक नेताजी ने एक अफसर को डांट दिया. अफसर ने भी दाढ़ी खुजाते हुए कहा- चाहे जो कुछ कर लीजिए…पुष्पराज झुकने वाला है. मैं झुकूंगा नहीं…अफसर….. तेरी झलक-अशर्फी…श्रीवल्ली नैना मदक बर्फी गाते हुए निकल गया.