‘मनोज शर्मा’
देश में महामारी की दूसरी लहर से चौतरफा मौत का मंजर है। ऐसे में जिसके पास चार पैसे हैं, वह तो अपने इलाज के लिए अस्पताल में जगह, ऑक्सीजन और वेंटिलेटर का इंतजाम कर लेगा। लेकिन किसी ने सोचा है कि दो-चार सौ रुपए की रोजी के लिए अपनी जान खतरे में डालने वाला श्रमिक या कामगार, रेहड़ी वाला, अपनी जान बचाने के लिए क्या करेगा। उसे तो इस लॉकडाउन में अपनी दो वक्त की रोजी-रोटी का भी जुगाड़ करना पड़ रहा है। इन लाखों अभागों को तो यह भी नहीं पता होता कि कल काम मिलेगा या नहीं। काम मिल भी गया तो रोजी मिलेगी या नहीं। इस बार के लॉकडाउन में शौकिया समाज सेवकों की भी हालत खुद पतली दिख रही है। पिछली बार के लॉकडाउन की तरह इस बार दाना-पानी और महामारी से लड़ने का सामान बांटते भी नहीं दिख रहे हैं। लगता है, पिछली बार का इनका शौक अब खुद जान बचाने के चक्क र में फुर्र हो गया है।
अब रहा सवाल सरकार का, तो उसके नीति नियंता मजदूर वर्ग को दो माह का राशन दे भी दें (वो भी सबको नहीं) तो क्या किसी का चूल्हा जल सकता है? नहीं ना। क्योंकि दो वक्त की रोटी के लिए नून, तेल, लकड़ी भी चाहिए। इन सबके लिए चाहिए रोजी-मजदूरी। सरकार वह नहीं देगी। महामारी के दौर में तो बिल्कुल नहीं। पिछले साल केंद्र सरकार के लॉकडाउन की वजह से पैरों में छालों के दर्द से भरा पलायन हुआ था। इस साल राज्यों के लॉकडाउन में सफर उतना दर्द भरा तो नहीं है, लेकिन उनके सामने जान और जहान, दोनों का संकट है।
पिछले साल महामारी के दौर में भी वही अदालतें थीं, वही नेता, वही सरकारें थीं और अब भी वही सब हैं। तब भी पलायन रोकने के लिए चीखा- चिल्लाया गया और अब भी सब अपील कर रहे हैं कि पलायन न करें। बिना किसी राष्ट्रीय नीति और सरकारी नीयत के ये मजदूर आखिर कैसे रुकें, परदेश में। पेट की आग और आपदा में जान की आफत के दौर में अपने गांव-घर की याद किसे नहीं आएगी।
हम अपने आपको सभ्य समाज कहते हैं, देश को विश्वगुरु बनाने का संकल्प भी ले रखे हैं, तो किसने इन श्रमिकों का दर्द महसूस किया? शायद किसी ने नहीं। वरना, मजदूरों और कामगारों के लिए कोई राष्ट्रीय नीति बन गई होती। हम मंदिर-मस्जिद पर फैसले कर सकते हैं। विदेश और अर्थ नीति बदल सकते हैं। लेकिन अगर नहीं कर सकते तो श्रमिक नीति में बदलाव या इसका कोई आयोग नहीं बना सकते। दुकानें, व्यावसायिक प्रतिष्ठान, औद्योगिक संस्थान बंद हैं। ऐसे में यहां के कामगारों का वेतन बंद है। कहीं आधी-अधूरी तनख्वाह मिल भी रही है, तो उसका परिवार कैसे गुजर कर रहा होगा? किसी सरकार ने इन चौदह माह में नहीं सोचा। चाहे दिहाड़ी मजदूर हो या फिर कामगार, रेहड़ी वाले, सबका यही हाल है।
‘आम आदमी’ और ‘खास आदमी’ का यह फर्क संवैधानिक मर्यादाओं के मुंह पर तमाचा नहीं माना जाना चाहिए। इन प्रताड़ित मजदूर वर्ग में किसान भी शामिल हैं, जो तीन कृषि कानूनों के खिलाफ जान की जोखिम लेकर सड़कों पर बैठे हैं। ख्ोतों में मजदूरी करने वालों को भी ऐसे समय में घर लौटना पड़ रहा है, जब फसल का समय नहीं है। केवल मनरेगा के भरोसे काम चलाना इसलिए भी संभव नहीं है कि इसमें सिस्टम के भ्रष्टाचार की जोंक (सरपंच, सचिव, रोजगार सहायक) आधी मजदूरी दे रहे हैं।
भारत जैसे विशाल और बहुलता मूलक देश में निष्कर्ष आसानी से नहीं गढ़े जा सकते। देखना कल मई माह के पहले दिन यानी कि मजदूर दिवस पर कैसे इन्हीं सरकारों के नुमाइंदे एक से बढ़कर एक वर्चुअल भाषण देंगे। इस दिन वेतन के साथ अवकाश भी सरकारें देंगी। यह पूछा भी नहीं जाएगा कि पिछले साल श्रमिकों के भले के लिए जो योजना बनी थी, उससे कुछ भला हुआ भी या नहीं।
मजदूर दिवस तो हर साल की तरह आकर चला जाएगा। लेकिन लाखों मजदूर और कामगार इस महामारी के दौर में भूखा या आधा-अधूरा खाकर ही सोएगा। लिहाजा, हर साल दिवस मनते गए और श्रमिकों का हाल बद से बदतर होता गया।
आप ही सोचें, इन श्रमवीरों को जान बचाने के लिए स्वास्थ्य सुविधा का हक है या नहीं। विशेषकर प्रवासी मजदूरों को पहले वैक्सीनेट किया जाता। फिर उद्योग जगत की दृढ़ इच्छा शक्ति के सहारे कार्यस्थल पर रोकने के लिए सुविधाएं जुटाई जातीं। इससे देश के कारखाने भी चलते और अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत असर नहीं पड़ता। असल में कोरोना हमें सिखा रहा है कि हमारी भौतिक सुख-सुविधाएं बिना मानवीय हितों को संरक्षित किए संभव नहीं है। अत: इस सर्वहारा वर्ग की सुरक्षा करना देश का ‘सामयिक’ धर्म भी है।