‘राजकुमार सोनी’
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने बतौर मुख्यमंत्री अपने तीन साल पूरे कर लिए हैं.उनके मुख्यमंत्री बने रहने के साथ-साथ उनकी सरकार के भी तीन साल पूरे हो गए हैं.उनका और उनकी सरकार का पहला साल चुनाव में गुजरा तो दो साल कोरोना से निपटने में बीत गया. इस बीच उन्हें अस्थिर करने की साजिश भी चलती रही हैं. मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने कभी उन पर धर्मान्तरण को बढ़ावा देने का आरोप लगाया तो कभी कवर्धा में भगवा झंड़े का अपमान बताकर हिन्दू विरोधी साबित करने की असफल कवायद की गई. उनकी अपनी ही पार्टी के कुछ नेता लगातार इस बात को हवा देते रहे कि ढ़ाई-ढ़ाई साल तक मुख्यमंत्री बने रहने का कोई फार्मूला बना हुआ है सो…अब-तब में उनकी कुर्सी जाने वाली है. उन्हें अस्थिर करने में दिल्ली और छत्तीसगढ़ में विराजमान कुछ अधिकारी तथा पुरानी सरकार के प्रवक्ता संपादक-पत्रकार भी जबरदस्त ढंग से सक्रिय रहे हैं. कतिपय सामाजिक कार्यकर्ता उन्हें आदिवासी और किसान विरोधी साबित करने के लिए दुष्प्रचार का पका-पकाया और एक्सपोज हो जाने वाला चिर-परिचित हथकंड़ा आजमाते रहे हैं. बहरहाल कई तरह की उठा-पटक के बीच बघेल ने खुद को विश्वसनीय और मजबूत राजनेता के तौर पर स्थापित कर लिया है.
हालांकि मजबूत-टिकाऊ और विश्वसनीय तो वे तब भी थे जब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार नहीं थीं. भाजपा के शासनकाल में उनकी अपनी ही पार्टी के किसी नेता को चौदहवां मंत्री कहा जाता था तो किसी नेता के बारे में यह विख्यात था कि उनके घर में दूध का पैकेट भी अंत्योदय योजना के तहत भाजपा के कार्यकर्ता सप्लाई करते हैं. 25 मई 2013 को कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमले में कई कांग्रेस नेताओं की हत्या के बाद यह समझा जा रहा था कि अब छत्तीसगढ़ में फिर कभी भाजपा लौटकर नहीं आएगी, लेकिन…इस जघन्य हत्याकांड़ के बाद भी भाजपा ने बाजी पलट दी थीं. दरअसल उस दौरान कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व जनता को यह बात समझाने में कामयाब नहीं हो पाया कि घटना की जड़ में कांग्रेस नहीं भाजपा है. तब एक बड़ी आबादी यह मान रही थीं कि घटना में हेलिकाफ्टर से राजधानी लौटने वाले एक प्रमुख कांग्रेसी नेता का अहम रोल है. बहरहाल 2018 में जब भूपेश बघेल के हाथ में संगठन की कमान आई तब उन्होंने कई मोर्चों पर खुद को सक्रिय किया और रमन सिंह सरकार के खिलाफ जोरदार ढंग से आवाज बुलंद की. बघेल ने छत्तीसगढ़ में उस कांग्रेस में जान फूंकी जो आक्सीजन जोन में चली गई थीं. आखिरकार, मेहनत रंग लाई और अब 2018 का चुनाव कांग्रेस जीत गई.
जब छत्तीसगढ़ में सत्ता का सारथी तय करने की कवायद चली तब इस रेस में बघेल के अलावा टीएस सिंहदेव, चरणदास महंत और ताम्रध्वज साहू भी शामिल थे, लेकिन आलाकमान ने भूपेश बघेल के नाम पर इसलिए मुहर लगाई क्योंकि वे गलत नीतियों और प्रवृतियों के आगे झुकना नहीं जानते थे. कांग्रेस के सत्ता में आने के पहले उनकी अपनी ही पार्टी के एक बड़े नेता अजीत जोगी रमन सरकार के खिलाफ सख्त रुख अख्तियार नहीं करते थे. कांग्रेस के प्रत्याशी मंतूराम पवार को भाजपा में शामिल करने के पीछे जो घटनाक्रम घटित हुआ था उसे सभी फोरम पर उजागर करने में भी भूपेश बघेल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं. अपने अथक प्रयासों से अततः उन्होंने यह साबित किया कि जिस जोगी को कांग्रेस का खैर-ख्वाह समझा रहा है दरअसल वे कांग्रेस को गर्त में डूबोने वाले शख्स हैं. आलाकमान के समक्ष लंबे समय तक यही धारणा ही बनी हुई थीं कि छत्तीसगढ़ में जोगी को साथ लिए बगैर पार्टी की नैय्या का पार लगना असंभव है. बघेल ने इस धारणा को ध्वस्त कर भाजपा की बी-टीम समझे जाने वाले अजीत जोगी और उनके पुत्र अमित जोगी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया तो कांग्रेस की राह आसान हो गई.
भूपेश बघेल ओबीसी समुदाय से आते हैं. छत्तीसगढ़ में 52 फीसदी ओबीसी हैं जिसमें से 36 फीसदी केवल कुर्मी समाज से ही आते हैं. इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि वे अपने समुदाय के सबसे बड़े नेता हैं, लेकिन गत तीन सालों में जन-सरोकार से जुड़े कामों की वजह से उनकी छवि सर्वमान्य हो गई है. वे अब आदिवासियों के बीच भी लोकप्रिय हैं तो समाज का अन्य वर्ग भी उन्हें बेहद पंसद करता है. बघेल की सबसे बड़ी ताकत उनका किसान पुत्र होना भी है. उनके किसान होने से छत्तीसगढ़ में किसानों के लिए कई तरह की कल्याणकारी योजना लागू है. जब देश में मोदी सरकार किसानों के साथ बुरा बरताव कर रही थीं तब छत्तीसगढ़ के किसानों के खाते में बोनस की राशि भेजी जा रही थीं. सच तो यह है कि छत्तीसगढ़ में जब-जब गोदी मीडिया मुख्यमंत्री को बदलने की खबर चलाता था तब गांव-गांव से किसान यह सवाल उठाते थे कि महराज को बैल पकड़ना और हल चलाना आता है नहीं ?
बहरहाल तीन साल का उनका सफर यादगार और शानदार रहा है. अपने और परायों की साजिशों के बीच बघेल भी जनता के लिए आगे और कुछ बेहतर करने को लेकर आश्वस्त है. लेकिन यह भी तय है कि अभी चुनौतियां कम नहीं हुई है. वे स्वयं स्वीकारते हैं कि केंद्र की मोदी सरकार हर काम में बाधा उत्पन्न कर रही है. छत्तीसगढ़ की सरकार ने केंद्र से धान खरीदी के लिए पांच लाख गठान बारदानों की मांग की है, लेकिन केंद्र का रवैय्या बेहद ढीला-ढाला है. सरकार हर साल उसना चावल जमा कर रही थीं. अब केंद्र ने फरमान जारी कर दिया है कि वह उसना चावल नहीं लेगी. राज्य को सेंट्रल एक्साइज का पैसा भी नहीं दिया जा रहा है. वहीं कई ऐसी योजनाओं का पैसा भी अटका पड़ा है जिसे केंद्र को देना ही चाहिए था. मुख्यमंत्री ने छत्तीसगढ़ के राजभवन के कामकाज को लेकर भी सवाल उठाए हैं. उनका कहना है कि छत्तीसगढ़ में प्रतिभाओं की कमी नहीं है बावजूद इसके बाहर से लोगों को लाकर वाइस चांसलर बनाया जा रहा है. राजभवन हर उस विधेयक को रोक रहा है जो जनता के लिए उपयोगी है. राजभवन को राजनीति का अखाड़ा बना दिया गया है.
और…अंत में.
छत्तीसगढ़ में सीधे-सरल और सभी धर्मों का सम्मान करने वाले लोग निवास करते हैं. कवर्धा सहित कुछ अन्य जगहों की घटना यह बताती है कि अपनी जमीन खो चुके राजनेता यहां की मिट्टी में नफरत का बीज बोना चाहते हैं. बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ की शांत फिजा में नफरत, माब लीचिंग और सांप्रदायिकता का जहर घोला जाय. लगता तो यहीं है कि सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती सांप्रदायिक ताकतों से निपटने को लेकर बने रहने वाली है. वैसे यह चुनौती तब तक है जब तक मोदी पैटर्न चल रहा है.जब मुद्दे नहीं होते हैं तो गाय-हिन्दू-मुस्लिम और झंड़ा ही होता है. सांप्रदायिकता की चुनौती देश की सबसे बड़ी चुनौती है. लोगों को काटने-बांटने और छांटने वाली इस चुनौती से देश का मेहनतकश और पढ़ा-लिखा वर्ग जूझ रहा है. लंपट समुदाय की इस विकास विरोधी चुनौती से भूपेश बघेल को भी दो-चार होना ही पड़ेगा. छत्तीसगढ़ कभी दंगों की प्रयोगशाला वाला गुजरात न बन पाए…यह कोशिश हर स्तर पर जारी रखनी होगी.