नई दिल्ली (omgnews.co.in): आज यानी 27 जून को वट पूर्णिमा है. ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को वट पूर्णिमा कहते हैं. मान्यता है कि जो भी वट पूर्णिमा का व्रत पूजा-विधि से करता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. इस दिन भगवान विष्णु के साथ-साथ वट वृक्ष की भी पूजा होती है. आपको बता दें कि एक साल में 12 पूर्णिमा आती हैं और हर पूर्णिमा में श्री हरि विष्णु की उपासना की जाती है.
वट पूर्णिमा का महत्व
हिन्दू धर्म को मानने वालों की वट यानी कि बरगद के वृक्ष में गहरी आस्था है. वट वृक्ष को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का रूप माना जाता है. मान्यता है कि सृष्टि के संचालक भगवान इस वृक्ष में वास करते हैं. ऐसा माना जाता है कि जो कोई भी सच्चे मन से वट पूर्णिमा के दिन वट वृक्ष की पूजा करता है उसे संतान की प्राप्ति होती है. साथ ही सुहागिन स्त्री के पति की आयु भी लंबी होती है.
पूजा विधि
वट पूर्णिमा का व्रत आमतौर पर सुहागिन महिलाएं रखती हैं. इस दिन सुबह उठकर स्नान करने के बाद सच्चे मन से व्रत का संकल्प लेना चाहिए. इस दिन की पूजा वट वृक्ष के नीचे की जाती है. पूजा के लिए एक बांस की टोकरी में सात तरह के अनाज रखे जाते हैं, जबकि दूसरी टोकरी में देवी सावित्री की प्रतिमा रखी जाती है. वट वृक्ष पर जल चढ़ा कर कुमकुम और अक्षत अपर्ण किया जाता है. फिर सूत के धागे से वट वृक्ष को बांधकर उसके सात चक्कर लगाए जाते हैं. इसके बाद वट सावित्री की कथा सुनने के बाद चने-गुड़ का प्रसाद दिया जाता है. सुहागिन महिलाओं को वट वृक्ष पर सुहाग का सामान भी अर्पित करना चाहिए.
वट पूर्णिमा की कथा
एक समय की बात है कि अश्वपति नाम के धर्मात्मा राजा था. उनकी कोई भी संतान नहीं थी. राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया. कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा. विवाह योग्य होने पर सावित्री के लिए द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पति रूप में वरण किया. सत्यवान वैसे तो राजा के पुत्र थे लेकिन उनका राजपाट छिन गया था और अब वे बहुत ही साधारण जीवन जी रहे थे. उनके माता-पिता की भी आंखों की रोशनी चली गई थी. सत्यवान जंगल से लकड़ियां काटकर लाते और उन्हें बेचकर जैसे-तैसे अपना गुजारा कर रहे थे. जब सावित्री और सत्यवान के विवाह की बात चली तो नारद मुनि ने सावित्री के पिता राजा अश्वपति को बताया कि सत्यवान अल्पायु हैं और विवाह के एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो जाएगी.
नारद मुनि ने सत्यवान की मृत्यु का जो दिन बताया था, उसी दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ वन को चली गई. वन में सत्यवान लकड़ी काटने के लिए जैसे ही पेड़ पर चढ़ने लगे, उनके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी और वह सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गए. कुछ देर बाद उनके समक्ष अनेक दूतों के साथ स्वयं यमराज खड़े थे. जब यमराज सत्यवान की जीवात्मा को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे, सावित्री भी उनके पीछे चलने लगी.
आगे जाकर यमराज ने सावित्री से कहा, ‘हे पतिव्रता नारी! जहां तक मनुष्य साथ दे सकता है, तुमने अपने पति का साथ दे दिया. अब तुम लौट जाओ. इस पर सावित्री ने कहा, ‘जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मुझे जाना चाहिए. यही सनातन सत्य है. यमराज सावित्री की वाणी सुनकर प्रसन्न हुए और उसे वर मांगने को कहा- सावित्री ने कहा, ‘मेरे सास-ससुर नेत्रहीन हैं, उन्हें नेत्र-ज्योति दें. यमराज ने ‘तथास्तु कहकर उसे लौट जाने को कहा और आगे बढ़ने लगे. किंतु सावित्री यम के पीछे-पीछे ही चलती रही.