‘ मुंह फट ‘

” रवि शुक्ला “

एसपी की ठकुराई, माननीय नाराज.

कहते हैं कि,अहंकार और आत्मविश्वास, एक ही परिवार के दो सदस्य हैं,लेकिन इन दोनों में कितना अंतर है, आत्मविश्वास कहता है मैं अच्छा हूं लेकिन अहंकार कहता है कि सिर्फ मैं ही अच्छा हूं,अहंकार कहता है मुझे कोई हरा नहीं सकता आत्मविश्वास कहता है मैं हर मुकाबले के लिए तैयार हूं। अहंकार कहता है मेरा कोई मुकाबला ही नहीं है कहते दोनों ही हैं करके दिखाते भी दोनों ही है,फर्क केवल इतना है। आत्मविश्वास की गूंज सफलता तक जाती है और अहंकार की गूंज विनाश तक ले जाती है.

सुशासन सरकार के राज में एक जिले का हाल कुछ ऐसा ही है। अब आत्मविश्वास किस में है और अहंकार की कुर्सी पर कौन बैठा है ये तो नही पता, कड़क मिजाज पुलिस कप्तान सिंह साहब से जिले के माननीय नाराज चल रहे हैं। कोई बता रहा था कि गोलू मोलू सेठ और सिन्हा विधायक की नाराजगी जायज भी है। नाराजगी इस बात की है कि एसपी हमारा फोन भी उठाते तव्वजों नहीं देते सीएम तक शिकायत चली गई है कप्तान फोनो फ्रेंड नहीं है इनको हटाओ,अब सिंह साहब भी क्या करें ठकुराई खून में है माननीय हो या कोई और इज्जत दिए तो चांद तक नहीं तो जाए दे।

वैसे उड़ीसा बार्डर से लगे राज्य के जिले की कप्तानी कर रहे सिंह साहब तेज तर्रार के साथ जरा घुरमुहा स्वभाव के भी है। ज्यादा किसी को फेस करना पसंद नहीं करते माहौल भी ऐसा बनाया है कि सेंट्रल के किसी बड़े नेता के रिश्तेदार है। मातहतों के पसंदीदा रहते तो भी समझ आता वहां भी जीरो,अब ऐसे में माननीयों का क्या वजूद,सोच ही सकते है।

ये अपून का स्टाइल है.

कच्ची सड़क से होते हुए पूर्व मंत्री आंधी की विधानसभा में एक बड़ा प्लांट है। हर लाबो लूवाब से मस्त, नहर की डगर पकड़े चले चलो बढ़े चलो, इलाके के पुराने खटराल और बीजेपी नेताओं की ओवर लोड भारी ट्रकों का काफिला यही से गुजरता है।

रास्ते में पेड़ की छांव के नीचे एक मोटे थानेदार हंसते हंसाते संबंध निभाते अपनी टांड़ गड़ाए चंद खास थाना स्टाफ के साथ लगे रहते है सोटाई में, मोटले थानेदार को सारे पैंतरे जो पता है। अरे सिपाही से भर्ती होकर कंधों पर तीन स्टार का सफर ऐसे थोड़ी तय किया है वैसे भी नौकरी के कम दिन बचे है जाती बिराती लक्ष्मी मईया जो कृपा बरसा दे,ठीक भी है सुशासन में लगे रहिए मगर ख्याल रहे सुशासन है तो सुदर्शन भी हैं जाने किस दिन प्रहार हो जाए।

ग्रामीण अध्यक्ष या शहरी सरकार?”

बिलासपुर के ग्रामीण जिला अध्यक्ष, नाम से भले ही ग्रामीण हों, लेकिन चाल-ढाल और जुबान में पूरा “शहरी ठाठ” झलकता है। अरे भाई, गांव के नेताओं में जहां अब भी चूल्हे की सोंधी महक और ईमानदारी की हल्की झलक बची है, वहीं ये महाशय तो मानो महानगरों के कॉर्पोरेट सीईओ बनकर घूमते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि यहां कंपनी का नाम ‘पॉलिटिक्स लिमिटेड’ है, और शेयरधारक वही लोग हैं, जिनकी जेब में ताकत की चाबी है!

अब बेचारे पदाधिकारी दिन-रात ये सोचकर परेशान हैं कि आखिर वो किसका भला करने आए थे और किसके चक्रव्यूह में फंस गए। कहते हैं, जब तक ‘ऊपर’ से इशारा न हो, तब तक ग्रामीण अध्यक्ष जी के कानों में मिश्री नहीं घुलती। मानो कानों में कोई ‘फिल्टर’ लगा हो—सिर्फ बड़े आका की आवाज़ सुनाई देती है, बाकी सब शोर-शराबा।

अध्यक्ष जी की कार्यशैली इतनी अनोखी है कि कोई भी लिस्ट तब तक नहीं बनती, जब तक उनके ‘शहरी आकाओं’ की मुहर न लगे। पदाधिकारी बेचारे सुबह उठते ही व्हाट्सएप खोलकर देखते हैं कि कहीं रातों-रात कोई नया फरमान तो नहीं आ गया! और जब लिस्ट बनती है, तो उसमें नाम उन्हीं के होते हैं, जो ‘हाजिरी’ लगाना जानते हैं।

अब सवाल यह उठता है कि आंखों में इस दोहरे चरित्र की धूल झोंकने का क्या कारण है? क्या वाकई ग्रामीण अध्यक्ष सिर्फ नाम के लिए ग्रामीण हैं, या फिर ये भी किसी बड़े ‘शहरी प्लान’ का हिस्सा है?

पिछले एपिसोड का शेष.

जानिए,पीडब्ल्यूडी के केले की विशेषताएं.

1. स्वादिष्ट: अधिकारी को चढ़ाते ही आपके सभी अटके हुए टेंडर मंजूर हो जाते हैं।

2. चमत्कारी: एक केला चढ़ाइए और गड्ढों से भरी सड़कें ‘फाइलों में’ चकाचक नजर आने लगेंगी।

3. फायदे का सौदा: जितना बड़ा केला, उतना बड़ा ठेका.

4. सरकारी सीजनल फल: चुनाव के समय इसकी मांग बढ़ जाती है, क्योंकि तभी ‘सबसे मीठे’ सौदे होते हैं।

ठेकेदारों की पीड़ा.

इस केले की इतनी लोकप्रियता है कि अब ठेकेदारों को इसकी सप्लाई में दिक्कत आने लगी है। कुछ ठेकेदार कहते हैं कि ‘केले की मिठास’ हर साल महंगी होती जा रही है। पहले एक केला काफी था अब पूरी टोकरी चाहिए।

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