“मुंह फट”

‘ रवि शुक्ला ‘

सदन में नए मंत्रियों पर पुराने भारी.

भाजपा ने प्रदेश में नए चेहरों को मंत्री तो बना दिया लेकिन विधानसभा में इन्हीं मंत्रियों पर भाजपा के सीनियर हावी हो रहे हैं। आधा दर्जन से अधिक पूर्व मंत्री अपने अनुभवों के सहारे पील पड़े हैं। जिससे साय सरकार साय साय हो रही है। पहले तेज तर्रार मोहन भईया सदन में अपने ही पार्टी के मंत्रियों को घेरे रहते थे लेकिन उन्होंने अब दिल्ली की राह पकड़ ली,बचे पुराने दुबराज धरमलाल कौशिक, अजय चंद्राकर, राजेश मूणत,पुन्नू लाल मोहले व कुछ अन्य सरकार को ऐसा कड़कनाथ की तरह घेरते हैं कि जवाब देना मुश्किल हो जाता है। सवाल तो सवाल सदन में नए मंत्रियों से भीड़ भी जाते हैं छिछालेदर होने तक और अंत में आसदी से बोलवा ही लेते है कि इस मुद्दे पर फालना अफसर या ठेकेदार पर सरकार कार्रवाई करेगी। खैर ये सुशासन का साय साय है भई.

हंसमुख पंडित जी का ‘अनुभव’.

ये बात बीते पांच साल पहले की है। एजुकेशन फिल्ड छोड़ एक पंडित जी राजनीति में आए सब को पता है। शिक्षाविद बेहद अच्छे, मिलनसार और संस्कारी व्यक्तिव लेकिन कांग्रेस की दाऊ सरकार में दाल नहीं गली। बेचारे लाचार ही रह गए और जनता ने उन्हें अलविदा कह दिया, होना भी था क्योंकि जिन पर उनका घमंड हर काम में ‘अनुभव’ की बात उसने ही साथ नहीं दिया। पांच साल रगड़ कर कमाया साइकिल से चार पहिया पर आ गया। लेकिन हंसमुख पंडित जी के एन वक्त पर उनका ही ‘अनुभव’ काम नहीं आया। सुनिए भई ये हम नहीं कह रहे पब्लिक डिमांड है। लोगों के जी जान में आग लग जाती है। जब जब पंडित जी के आसपास उनका ‘अनुभव’ दिखाई देता है। कहते हैं किया धरा कुछ नहीं फिर भी चिपका कर रखते हैं आखिर क्यों? ठीक विधानसभा चुनाव के समय होटल के एसी कमरे में बाबू साहब की तरह ठाठ, चार कदम में चुनाव ऑफिस आए तो आए नहीं तो नमस्ते प्रचार में तो दिखे ही नहीं फिर भी फंडिंग हंसमुख जी के प्यारे ‘अनुभव’ के हाथों,हाल ही में राजा साहब का शहर आगमन हुआ पंडित जी ने सब को ओवर ब्रिज के उस पार अपने घर आने का न्यौता दिया बकायदा मीडिया वालों के साथ, जिन्हें नहीं बुलाया बाद में फोन कर सॉरी बेटू,मेरी जान का राग अलापा फलाना तुम तो अपने हो, अब वहीं लोग कहते फिर रहे हैं कि जब हम अपने है तो भूल जाने की इतनी बड़ी मिस्टेक कैसे, अपने ‘अनुभव’ को ही भूल जाते साथ में राजा साहब का वो सिपाही जिनसे सरेआम आपकी बेज्जती की बताओ भला,ठीक है कोई बात नहीं हम तो बोलेंगे और पूछेंगे कि आपका ‘अनुभव’ ही काम आएगा।

बेटी बचाओ से ‘नेता’ बचाओ तक का सफर.

बिलासा की राजनीति में टिकट कटने का गम कैसा होता है, ये उस पूर्व एंकर से बेहतर कौन समझेगा, जो अपनी चमकती सियासी राह में अचानक से धुंधला गईं। एंकरिंग के लाइट कैमरा,एक्शन और स्टूडियो की तरह उम्मीद थी कि नगर निगम की कमान मोहतरमा के हाथ होगी। लेकिन हुआ वही जो राजनीति में अक्सर होता है, उफ्फ टिकट कट गई,और जब टिकट कटती है, तो नेता भी सन्यासी मूड में आ जाते हैं। बस फिर क्या था, सीधा कुंभ स्नान का प्लान बन गया।

लेकिन खुद को हुस्न की परी समझने वाली मोहतरमा अकेली नहीं गईं, साथ में राजधानी के चहेते भईया प्रदेश के एक बड़े नेता भी थे। अब कुंभ नहाने की असली वजह कोई जानता हो या न जानता हो, लेकिन राजनीति में ये गंगा स्नान ‘पाप धोने’ का एक सदाबहार फॉर्मूला है। पानी में डुबकी लगाकर न सिर्फ आत्मा शुद्ध होती है, बल्कि भविष्य की रणनीतियाँ भी बनती हैं।

अब बात आती है ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की। कल तक मंचों से नारे लग रहे थे, लेकिन अब अपने ही भविष्य को बचाने के लिए ‘बचाओ-बचाओ’ की नौबत आ गई। राजनीति में जब टिकट कटती है, तो सिद्धांत भी हवा हो जाते हैं। जो कल तक नैतिकता का ज्ञान दे रहे थे, वे आज खुद नैतिकता की क्लास अटेंड करने कुंभ पहुंच गए।

पर असली सवाल यही हैकि राजनीति में चरित्र का पैमाना क्या है? जो टिकट मिलने तक साफ़-सुथरा रहता है, वो कटते ही धुंधला कैसे हो जाता है? कुंभ में स्नान से सवालों का जवाब नहीं मिलता, हाँ, चर्चा जरूर मिल जाती है।

निगम के नियम वाले शर्मा और शास्त्री जी.

छन छन की सुनो खनकार ये दुनिया है काला बाजार ये पैसा बोलता है…ये गाना खूब चला सब ने सुना, कुछ ऐसा ही नगर निगम में चल रहा है नियम के जानकर शर्मा और शास्त्री जी की जोड़ी खूब फल फूल रही है। कोई बता रहा था कि नक्शा पास कराने के लिए बिना इनको चढ़ावा चढ़ाए कुछ भी टस से मस नहीं हो सकता। हालांकि ये हाल पूरे निगम का है चाहे वो कोई खजांची क्यों न हो, माल भी कम नहीं लेकिन इनकी जोड़ी तो अंधाधुन कटाई कर रही है बस आने दो,काम और एरिया के अनुरूप रेट तय हैं।

“कहते हैं ऊपर वाला जब भी देता,देता छप्पर फाड़ के” शर्मा और शास्त्री जी को जोन भी मिला है शहर के उस पार का, जहां की जमीनों का कोई माई बाप नहीं, फरियादी भी अपनी समस्या लेकर आते हैं साहब नक्शा पास करवा दो बस इसके बाद खेल चालू, लाख रुपए से डिमांड शुरू होती है फिर ग्राहक देख जैसे चिड़िया बैठ जाए, क्या पता शर्मा और शास्त्री जी के अपने जोन में सत्ते पे सत्ता देने की भनक नगर निगम के चश्मिश कुमार साहब को है या नहीं.

ठेकेदारी का डिजिटल जादू: पैसा गायब, कंप्यूटर नदारद.

रतनपुर के कंप्यूटर ठेकेदार किसी चमत्कारी बाबा से कम नहीं,वे सूरज की तरह चमकते हैं, लेकिन उनकी ठेकेदारी का प्रकाश स्कूलों तक नहीं पहुंचता। सरकारी फाइलों में कंप्यूटर सप्लाई दिखती है, पैसा आहरित होता है, लेकिन हकीकत में कंप्यूटर स्कूल की दहलीज तक भी नहीं आते। यह किसी डिजिटल जादू से कम नहीं।

योजना-सांख्यिकी विभाग के अधिकारियों से उनकी दोस्ती इतनी मजबूत है कि कौन-सा विधायक, सांसद या राज्यसभा सांसद कितना पैसा छोड़ गया है, यह उन्हें मुंह जुबानी याद रहता है। जैसे ही कोई फंड बचता है, ये महारथी बिजली की गति से ठेका हासिल कर लेते हैं। उनकी सेटिंग इतनी परफेक्ट होती है कि अफसर भी चाय की चुस्की लेते हुए कह देते हैं। “आपकी फाइल तो पहले ही पास हो चुकी है सर”

जब स्कूल के मास्टरजी कंप्यूटर के बारे में पूछते हैं, तो उन्हें बताया जाता है कि “बस अगले हफ्ते पहुंच जाएगा।” यह “अगला हफ्ता” कभी नहीं आता, लेकिन ठेकेदार की जेब जरूर भरती रहती हैं।

सरकारी स्कूलों के बच्चे कंप्यूटर को देखने के लिए तरसते हैं, लेकिन ठेकेदार की कोठी में नई नई लग्जरी गाड़ियाँ जरूर खड़ी हो जाती हैं। आखिर डिजिटल इंडिया का असली फायदा तो इन्हीं को मिलना चाहिए! रतनपुर के लोग अब इस खेल को समझ चुके हैं। वे जानते हैं कि कंप्यूटर स्कूल तक भले ही न पहुंचे, लेकिन ठेकेदार की सेटिंग और उसकी कमाई हमेशा ऑनलाइन रहेगी-बिना किसी नेटवर्क प्रॉब्लम के!

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